Saturday, September 30, 2017

भक्त पगले अच्छे हैं।।।

राष्ट्र स्वाभिमान पर हमलों से,
जुमले ज्यादा अच्छे हैं।।
नागफनी की विष बेलों से,
तुलसी गमले अच्छे हैं।।
हाफिज सईद के चेलों से,
हम भक्त पगले अच्छे हैं।।

Friday, September 29, 2017

किसान:गन्ने से आबाद भी, बर्बाद भी

किसान:गन्ने से आबद भी बर्बाद भी।
                         @सुनील सत्यम
गन्ना : क्या चूक गई शक्ति ?
देश की 52 % से अधिक आबादी कृषि पर आधारित है.अधिकांश किसान कम पढ़ा लिखा है. उसके लिए राजनीती का अर्थ सिर्फ कोई भी चुनाव लड़ लेना है. राजनितिक एवं आर्थिक दांवपेंच उसकी समझ से बाहर हैं. गन्ना राजनीती से बहुतों ने अपनी राजनीती चमकाई है..चौधरी चरण सिंह से लेकर अब उनके पोते जयंत तक...गन्ने पर अवसर आते ही राजनीती करते रहे है..लाखों किसानों का अरबो रूपया चालाक मिल मालिकों की तिजोरिया दिन दुनी रत चोगुनी गति से भर रहा है..गरीब किसान ऋण के मकडजाल में फास्ता चला जा रहा है क्योंकि उसने अपनी जमा पूंजी तो गन्ने की उत्पादन लागत में खर्च कर दी. अब अपनी रोजमर्रा की जरूरते पूरी करने के लिए वह ग्रामीण साहूकार के चंगुल में फसता जा रहा है..यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है की 1991-92 में तत्कालीन  मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश श्री कल्याण सिंह ने किसान क्रेडिट कार्ड की शुरुआत करके किसानों को साहूकारों के चंगुल से निकालने का कम किया था..लेकिन अब स्थिति पुनः ऐसी बन रही है कि किसानों को अपनी दैनिक जरूरतों, बिमारी के ईलाज और बच्चों की शादी तक के लिए ग्रामीण साहूकारों से 10% प्रतिशत प्रति माह तक की दर से ऋण लेना पड रहा है..क्योंकि किसान क्रेडिट कार्ड पर वह पहले ही ऋण लेकर उसे कृषि उत्पादन में खर्च कर दिया है..
पहले गन्ने पर नेता राजनीती करके अपना जनाधार बढ़ाते थे लेकिन अब चीनी उद्योगपति इसी गन्ने पर राजनीती करके अपनी सम्पदा बढ़ाने में लगे है.गन्ने के सरकारी मूल्य पर खरीदने के बाद भी चीनी उद्योग को किसी भी प्रकार से हानि नहीं है..लेकिन घाटा दिखाकर चीनी मिल मालिक एक तीर से कई निशाने लगाने में कामयाब हो गए है जिसकी कीमत गरीब किसान चुका रहा है.घाटे का रोना रोकर मिल मालिकों ने गन्ना भुगतान बंद कर दिया और उस पैसे का शेयर मार्किट एवं कमोडिटी मार्किट में निवेश करके कई गुना मुनाफा कमाया..मिल मालिक भुगतान में देरी के लिए तो क्या ब्याज चुकाएगा, किसान को इसकी एवज में अपनी जरूरते पूरी करने के लिए लिए जा रहे ऋण पर बैंक दर से कहीं अधिक ब्याज और चुकाना पढ़ रहा है..यानि किसानों का भुगतान रोककर मिल मालिक अप्रत्यक्ष तूप से मुनाफाखोरी में लिफ्त है.
दूसरी और घाटे का राग अलाप कर एवं सम्भवतः कुछ अधिकारीयों एवं राजनेताओं के साथ अनैतिक सिंडिकेट का निर्माण करके, चीनी मिल मालिकों ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए दी जाने वाली लेवी चीनी दे भी छुटकारा पा लिया.इस सबके बावजूद भी मिल मालिक गन्ना भुगतान के लिए अभी राजी नहीं है.
सरकार को एक गन्ना नीति घोषित करनी चाहिए जिसके अनुसार-
1. किसानों को गन्ना बिक्री के अधिकतम 7 दिन के अन्दर भुगतान अनिवार्य रूप दे किया जाना चाहिए. यदि इससे अधिक देरी होती है तो मिल मालिक को खुले बाज़ार की दर से किसानों को ब्याज भुगतान करना चाहिए.
2.सरकार को गन्ना किसानों को उत्पादन लागत सहायता उपलब्ध करनी चाहिए..यह 0% की दर पर होनी चाहिए.
3.अनिवार्य गन्ना फसल बीमा में गन्ना भुगतान में होने वाले विलम्ब के विरुद्ध भी कवच किसानों को मिलना चाहिए.
4. सरकार गन्ना उत्पादन के लिए क्षेत्रफल कोटा भी निर्धारित करे ताकि गन्ना उत्पादन अधिक्य के कारन मूल्य गिरावट के प्रभावों से बचा जा सके.
      इसके अतिरिक्त किसानों के स्वयं भी गन्ना फसल उत्पादन से बाहर निकलना चाहिए ताकि गन्ना मिल मालिकों की मनमानी पर अंकुश लगाया जा सके.
@ सुनील सत्यम

Thursday, September 28, 2017

दुर्घटना द्वार बने रेलवे के अंडरपास!!

दुर्घटना द्वार बने रेलवे के अंडरपास!!
                           @सुनील सत्यम

"शून्य दुर्घटना अभियान" चलाते हुए
पूर्व संप्रग सरकार के समय 2010 से भारतीय रेलवे ने अपने नेटवर्क से मानव रहित फाटक समाप्त करने की कार्य योजना पर कार्य शुरु किया था जो आज भी जारी है।रेलवे ने एक उपयोजना के रूप में इसकी शुरुआत की थी।देश के अधिकांश मानव रहित फाटको के स्थान पर रेलवे द्वारा तेजी से भूमिगत पारगमन पथ (अंडरपास) बनाने का काम या तो पूरा कर लिया गया है अथवा वहां निर्माण कार्य प्रगति पर है। इस योजना के तहत रेलवे द्वारा वर्तमान फाटकों के स्थान पर ही पटरी के नीचे खुदाई करके भूमिगत पारगमन पथ (अंडरपास) बनाये जा रहे है।इस कार्य से संबंधित स्थान पर रेल एवं सड़क परिवहन बाधित न हो ,इसके लिये रेडीमेड कंक्रीट ब्लॉक के माध्यम से न्यूनतम समय के लिए रेल रोककर खुदाई एवं ब्लॉक को क्रेन के माध्यम से रखकर भूमिगत मार्ग तैयार कर दिया जाता है।निश्चित रूप से मानव रहित फाटकों को हटाकर इन फाटकों पर होने वाली रेल दुर्घटनाओं को रोकने में काफी मदद मिली है।
इस समय भारतीय रेलवे ब्रॉड गेज लाइनों पर सभी मानव रहित फाटकों को समाप्त करने के लिए कार्यरत है।
भारतीय रेलवे के अंतर्गत कुल मिलाकर 28 हजार से अधिक लेवल क्रॉसिंग्स हैं। इनमें से लगभग 19 हजार लेवल क्रॉसिंग्स मानव द्वारा संचालित किए जाते हैं और इनमें लगभग 9 हजार लेवल क्रॉसिंग्स मानव रहित है। मानव रहित कुल फाटकों में से करीब 6 हजार लेवल क्रॉसिंग्स ब्रॉड गेज नेटवर्क पर हैं, जिन्हें समाप्त करने को रेलवे द्वारा सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है।
भारतीय रेलवे ने पहले चरण के दौरान ब्रॉड गेज लाइन मानव रहित फाटकों की जगह भूमिगत पारगमन पथ निर्माण का कार्य शुरू किया था। इसके लिए जिन मार्गों पर शून्य/नगण्य ट्रेन व्हीकल यूनिट (टीवीयू) हैं, उन्हें बंद करने का प्रस्ताव है। इसी प्रकार कुछ मानव सहित/मानव रहित स्तर के फाटक या भूमिगत/सड़क मार्ग/रोड ओवर ब्रिज (आरओबी) को आपस में मिलाने के लिए भी रेलवे प्रयासरत है।
2015-16 के दौरान रेलवे ने लगभग ग्यारह सौ लेवल क्रॉसिंग्स और बारह सौ से अधिक लेवल क्रॉसिंग्स समाप्त किए। रेलवे अपना लक्ष्य हासिल कर चुका है
    समस्त सकारात्मक पहलुओं के बावजूद रेलवे का मुख्य लक्ष्य केवल मानव रहित फाटकों को हटाकर उनके स्थान पर भूमिगत पारगमन पथ का निर्माण करना है।वह भी आनन फानन में।कंक्रीट ब्लॉक को छोड़कर अन्य कोई मानक शायद निर्धारित नही किया गया है।सड़क भूतल से अधिकतम एवं न्यूनतम गहराई का कोई ध्यान नही रखा जा रहा है।सुगम एवं बाधा रहित आवागमन के लिए गहराई एवं ढाल अनुपात तथा जलनिकासी के लिए कोई व्यवस्था नही की गई है।ऐसे में रेलवे द्वारा बनाये जा रहे ये भूमिगत पारगमन पथ लोक-परिवहन एवं लोक जीवन के बाधक तत्वों के रूप में सामने आ रहे हैं।कहीं कहीं रेलवे ने अपनी सुविधानुसार भू-फाटकों का निर्माण करके सामान्य जनता का जीवन दूभर कर दिया है।कहीं कहीं ढाल के अनुपात में गहराई इतनी अधिक है कि वृद्ध व्यक्ति, एवं पशु गाड़ी से लेकर भारयुक्त आधुनिक वाहनों को भी इन्हें पार करना बहुत कठिन होता है।केवल ब्लॉक बनाकर रेलवे ने खानापूर्ति कर दी है एवं शेष मार्ग को परिवहन योग्य न बनाकर कच्चा छोड़ दिया गया है जहां वाहनों से उड़ती धूल बीमारियों की वाहक बन रही है।बरसात के दिनों में गम्भीर बीमारी की स्थिति में बीमार व्यक्ति की मौत तय मानी जा सकता है क्योंकि इन भूफाटकों में 3-4 फिट तक पानी का भराव देखा गया है जहां से किसी वाहन अथवा पैदल यात्री का निकलना मुश्किल है।अभी हाल ही में हुई बरसात के दौरान मुझे सहारनपुर से अपने गांव हथछोया जाना पड़ा।थानाभवन पहुंचने पर भूफाटक के नीचे से गुजरना पड़ता है।वहां 3-3 मीटर पाने भरने से मार्ग पूरी तरह अवरुद्ध था।एक ट्रैक्टर सवार ने दुस्साहस किया तो वह ट्रैक्टर पानी मे फंसा बैठा। खुद मुझे गाड़ी वापस घुमाकर जलालाबाद होते हुए तीतरों से गांव पहुंचना पड़ा।समय और धन दोनों की बर्बादी हुई।
किसान एवं पैदल यात्रियों एवं आसपास की आबादी के लिए ये भूफाटक किसी मौत के कुएं से कम नही हैं।गन्ने एवं अन्य फसलों के परिवहन के लिए कृषकों द्वारा पशुगाडी अथवा ट्रैक्टर का उपयोग किया जाता है।इन भूफाटको से होकर कोई भैंसा 15-20 कुंतल गन्ना लेकर चढ़ाई करके सड़क पर चढ़ सके अभी तक यह सम्भव नही होता देखा गया है।किसानों द्वारा प्रयास करने पर कई बार बुग्गी भैंसा वजन के कारण चढ़ाई से पीछे फिसल जाता है।इस प्रकार दुर्घटना होने से पशु एवं व्यक्ति की जान माल का खतरा बढ़ गया है।इससे किसानों को वैकल्पिक एवं लम्बा रास्ता परिवहन के लिए चुनना पड़ता है जो उनका श्रम व धन दोनों की बर्बादी का कारण बन रहा है।इस विषय में रेलवे को एक समग्र योजना बनानी चाहिए ताकि आम जन के समय एवं धन की बर्बादी को रोकते हुए,सुविधाजनक पारगमन सुनिश्चित कराया जा सके।
(लेखक राज्यकर विभाग उ.प्र. में असिस्टेंट कमिश्नर हैं,प्रस्तुत विचार में लेखक की निजिराय प्रस्तुत की गई है।)

Wednesday, September 27, 2017

यूपी का अन्ना हजारे

यूपी का अन्ना हजारे
-----–--------------------------सुनील सत्यम
             जब आप किसी बड़े संघर्ष के प्रारम्भ होने के साक्षी रहे हों तो उसका स्मरण मात्र आपको गौरवान्वित कर देता है। बात 26 फरवरी 1996 की है, देखते देखते 21 वां वर्ष शुरू हो रहा है।एक युवा अध्यापक मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश और संघर्ष की एक मशाल थामे मुज़फ्फरनगर शहर में प्रवेश करता है,मैं बी.एससी.द्वितीय वर्ष का छात्र था और अभाविप का पदाधिकारी।मै उस दिन डी ए वी कालेज मुज़फ्फरनगर के तत्कालीन प्राचार्य डॉ बी के त्यागी पर हुए जानलेवा हमले के विरोध में है प्रदर्शन को लीड कर रहा था।प्रदर्शन के बाद मेरी निगाह मास्टर विजय सिंह पर पड़ी,भ्रष्टाचार एवं भूमाफियाओं के खिलाफ उनके आंदोलन से मै भी प्रभावित हुए बिना नही रहा पाया।उनके साथ धरने पर बैठकर उन्हें अपना नैतिक समर्थन दिया।मैंने स्नातक पूरी की,कालेज और शहर दोनों छोड़ दिए।लंबे संघर्ष के बाद मैंने सफलता पाई मगर मास्टर विजय सिंह जी वहीँ डटे रहे।
दिन,महीने,साल गुजरे और अब 21 वां वर्ष प्रारम्भ होने जा रहा है।संघर्ष अपनी मंजिल पर न पहुंचे,ऐसा नही हो सकता है।मास्टर जी आप सफल होंगे और बहुत जल्द होंगे।लोकतंत्र के सेनानी 20 वर्ष से धरनारत है,और चोर चुनावी तैयारी कर,लोकतंत्र के रखवाले बनने का षडयंत्र बुन रहे हैं।
यह धरना दुनिए के सबसे लंबे धरने के रूप में "लिम्का एवं गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड्स" में स्थान बना चुका है।

         
गर्व का विषय है यह नहीं है मास्टर विजय सिंह, दुनिया के सबसे लंबे धरने का रिकॉर्ड बना चुके हैं बल्कि शर्म का विषय यह है कि भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में यदि सत्य के साधक को समाज एवं राष्ट्रीय हितों से जुड़े मुद्दे मुद्दों को लेकर इतना लंबा संघर्ष करना पड़े कि उसका जीवन युवावस्था से कब प्रौढावस्था में प्रवेश कर जाए,यह पता ही न चल पाई! फिर लोकतन्त्र का अर्थ ही क्या?
मास्टर विजय सिंह के सामने सुरक्षित कैरियर था, एक अच्छी खासी सरकारी नौकरी थी जिसे छोड़कर वह भ्रष्टाचार, अत्याचार के विरुद्ध आक्रोश लेकर व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद से धरने पर बैठ गए।26 फरवरी 1996 को जब वह धरने पर बैठे उस समय उनके मन विश्वास रहा होगा कि उनका आंदोलन बहुत शीघ्र सकारात्मक परिणाम लाएगा। और उस समय के मुजफ्फरनगर और आज के शामली जनपद के चौसाना गांव में दबंगों द्वारा कब्जाई गई 4000 बीघे जमीन, जिस पर जन कल्याण के कई कार्य हो सकते थे, जिसका गरीबों में पुनर्वितरण हो सकता था, उस पर से उनके द्वारा शुरू किए गए आंदोलन के परिणामस्वरुप सरकारी तंत्र कब्जामुक्ति कराएगा। लेकिन अंततः परिणाम क्या हुआ? मास्टर विजय सिंह अपने आप में एक रिकॉर्ड बन गए जो एक लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है। किसी लोकतंत्र में, सामाजिक सरोकारों से जुड़े किसी विषय को लेकर दुनिया का सबसे लंबा धरना चले यह उस लोकतंत्र की स्वास्थ्य प्रक्रिया पर एक सवालिया निशान है। लोकतंत्र के रखवालों को विचार करना होगा कि उस देश का लोकतंत्र आखिर जा किधर रहा है? यह एक यक्ष प्रश्न है कि क्या सामाजिक सरोकारों, राष्ट्रीय सरोकारों से जुड़े सवालों को लेकर आम आदमी के आंदोलन का कोई महत्व नहीं है ? क्या आंदोलन का अर्थ हजारों की संख्या में उमड़ी भीड़ और उसके द्वारा आराजकता और तोड़फोड़ करना होता है? क्या उन्हीं आंदोलनों का परिणाम सामने आता है ? क्या हरियाणा के जाट आंदोलन की तरह से अंदोलन किया जाता तो तब मास्टर विजय सिंह को न्याय मिलता? न्याय जिसकी अभिलाषा उनके मन में समाजिक सरोकारों को लेकर थी?

Tuesday, September 26, 2017

स्थानीय निवासी थे हडप्पा के रचनाकार

यद्यपि भारत मे ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों की कालावधि कांस्य युग के बाद की है तथापि कुछ ताम्रपाषाणिक संस्कृतियां हड़प्पा-पूर्व तथा परिपक्व हड़प्पा कालीन भी हैं।गणेश्वर (2800 ई.पू.-2200ई.पू.) परिपक्व हडप्पा कालीन ताम्रपाषाणिक स्थल है।गणेश्वर, खेतड़ी की ताम्र खदानों के समीप था जो हड़प्पा को ताम्र उपकरणों की आपूर्ति करता था।यहां से अनेक ताम्र उपकरण जैसे मछली पकड़ने के कांटे तथा बाणाग्र मिले हैं।वे हड़प्पा से प्राप्त उपकरणों के समान हैं।यहां से हड़प्पाई मृदभांडों के समान मृदभांड का एक टुकड़ा भी प्राप्त हुआ है।
   गणेश्वर से काले रंग से रँगी चित्रित धूसर मृदभांड भी प्राप्त हुए हैं।वास्तव में गणेश्वर से प्राप्त सामग्री न तो नगरीय है और न ही पूर्णतः चित्रित धूसर मृदभांड।यहां से ताम्र निधि संस्कृति के अवशेष मिले हैं।अर्थात यह एक पूर्व हडप्पा कालीन ताम्रपाषाणिक स्थल है जिसने परिपक्व हड़प्पा के उदय में योगदान किया।कालीबंगा, बनावली(हरियाणा),कोटदीजि (सिंध) आदि स्थलों से हडप्पा सभ्यता के तीनों चरण के अवशेष मिले हैं।जो इनके ताम्रपाषाण से परिपक्व हड़प्पाई स्थल में विकसित होने का प्रमाण है।।  
    सिंध के कई स्थल पूर्व हडप्पा सभ्यता के केंद्रीय स्थल का निर्माण करते हैं। यह संस्कृति ही बाद में विकसित एवं परिपक्व सभ्यता में परिवर्तित हो गई और इसने सिन्ध तथा पंजाब में शहरी सभ्यता को जन्म दिया।
   पाकिस्तान के पुरातत्वविद डॉ एम आर मुगल एवं फ़ज़ल खान ने चोलिस्तान पर अनुसंधान कार्य किया है।पाकिस्तान के चोलिस्तान क्षेत्र में 4000 ई.पू. में अनेक पूर्व हड़प्पाई कृषि अधिवास विकसित हुए तथापि प्रारम्भिक कृषि अधिवास ब्लूचिस्तान में 7000 ई.पू. विकसित हुए थे।पांचवीं, चौथी सहस्राब्दी में अन्नागार बनाये जाने लगे थे तथा गारे की ईंटो (कच्ची ईंट) का भवन निर्माण में प्रयोग होने लगा था।पालिशदार मृदभांड तथा टेराकोटा की स्त्री मृण्मूर्तियों (मातृ देवी-शक्ति उपासना) का भी निर्माण होने लगा था।
   व उत्तरी ब्लूचिस्तान में रहमान ढेरी सर्वप्रथम नियोजित नगर के रुप में विकसित हुआ।यहां नियोजित सड़कें तथा घर थे।यह स्थल पश्चिम में हडप्पा के समानांतर अवस्थित था।इस प्रकार प्रारम्भिक तथा परिपक्व हड़प्पा सभ्यता ब्लूचिस्तानी अधिवासों से विकसित हुई थी।हाकरा तथा प्रारम्भिक हाकरा संस्कृतियों एम आर मुगल द्वारा चोलिस्तान क्षेत्र में उत्खनन तथा ए एच दानी द्वारा उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त में गंधार शवाधानों का उत्खनन कराया गया है।जहां से महत्वपूर्ण साक्ष्य प्राप्त हुए है।
    अंततोगत्वा, विभिन्न प्रारम्भिक हड़प्पाई ताम्रपाषाण संस्कृतियों ने सिंध,ब्लूचिस्तान,राजस्थान तथा अन्य स्थानों में कृषि समुदायों के फैलाव को प्रोत्साहित किया।जिसने हडप्पा की नगरीय सभ्यता के उदय की पृष्ठभूमि हेतु परिस्थितियां तैयार की।इस संदर्भ में सिंध में कोटदीजि तथा आमरी एवं राजस्थान में कालीबंगा तथा गणेश्वर के दृष्टांत उल्लेखनीय हैं। इससे स्पष्ट होता है कि कुछ ताम्रपाषाणिक कृषक समुदाय सिंधु नदी के बाद के मैदानों की ओर बढ़े तथा उन्होंने कांस्य तकनीकी सीखी और विभिन्न सहायकों कारकों की मदद से नगरों की स्थापना में सफल हुए।जिसमें एक प्रमुख कारक कृषि अधिशेष उत्पादन तथा उसके कारण गैर-कृषक समुदायों को उत्पत्ति एवं हाट बाजारों की शुरुआत भी था।
   कभी कभी हडप्पा सभ्यता की उतपत्ति का श्रेय प्रकृतिक पर्यावरण को भी दिया जाता है हड़प्पा क्षेत्र का आधुनिक पर्यावरण भले ही शुष्क तथा अर्धशुष्क हो लेकिन 3000 ई.पू.-2000 ई.पू. में हमें यहां पर्याप्त वर्षा तथा सिंधु एवं इसकी सहायक नदियों सरस्वती/हाकरा में प्रचुर जल बहाव के साक्ष्य प्राप्त होते हैं अर्थात स्पष्ट है कि इस प्रकार के अनुकूल प्राकृतिक पर्यावरण ने भी हडप्पा सभ्यता के उदभव में सकारात्मक भूमिका अदा की।
हडप्पा के संस्थापक
कई इतिहासकार तथा भौतिक नृ- वैज्ञानिकों ने मोहनजोदड़ो की कंकाल सामग्री के अध्ययन के आधार पर हड़प्पा वासियों को अनेक प्रजातियों में विभाजित किया है:
आद्यआस्ट्रेलायड, भूमध्यसागरीय, एल्पाइन एवं मंगोलाभ।
   लेकिन आधुनिक भौतिक नृवैज्ञानिक इस अवधारणा का खंडन करते हैं उनका मानना है कि:
* हडप्पा,मोहनजोदड़ो तथा लोथल के लोगों की नाक चपटी थी।
* दूसरा निष्कर्ष यह है कि अन्य दोनों स्थलों के लोगों की तुलना में लोथल के लोगों का सिर भी चौड़ा था।
* हड़प्पा की कंकाल सामग्री के आधार पर इतिहासकारों का मत है कि इनमें से प्रत्येक स्थल की जनसंख्या कम से कम सिर तथा नाक के आकार एवं कद की दृष्टि से एकसार थी अर्थात उनकी अपनी अपनी मूल रचना चाहे जैसी भी रही हो इनमें प्रत्येक स्थल की जनसंख्या एक ही जीव वैज्ञानिक समूह से सम्बद्ध थी।उनका सम्बन्ध ऐसी भिन्न भिन्न प्रजातियों से नही जोड़ा जा सकता है जिनकी शारीरिक विशेषताएं भिन्न हों। डी के सेन का मत है कि पंजाब,सिंध की जनसंख्या चपटी नाक,ऊंचे कद तथा लंबे सिर वाली थी जबकि गुजरात के लोगों का सिर गोल-मटोल था।
स्मरणीय है कि इन लोगों के शारीरिक प्रारूपों का किसी युग या क्षेत्र विशेष की संस्कृति या सभ्यता से कोई सीधा संबंध नही था।निष्कर्षतः, हडप्पा सभ्यता के सृष्टा, मामूली परिवर्तनों के साथ, इस सभ्यता के वर्तमान क्षेत्रों के लोगों के पूर्वज ही थे।इस बात की पुष्टि इंस्टिट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटेग्रेटेड बायोलॉजी (इजिब) के मानव जीनोम प्रोजेक्ट के निष्कर्षों से भी हो जाती है।इस प्रोजेक्ट का प्रमुख निष्कर्ष है कि "विभिन्न प्रजातियों में जीन के आधार पर विभेद कठिन है।सभी की मूल जैविक संरचना समान है।"
(लेखक राज्यकर विभाग में असिस्टेंट कमिश्नर है, प्रस्तुत लेख लेखक का निजी शौध-पत्र है)

कब बनेगा शाकुम्भरी देवी श्राइन बोर्ड?

देश की 51 शक्तिपीठों में से एक महत्वपूर्ण शक्तिपीठ उत्तर प्रदेश के सहारानपुर जनपद की बेहट तहसील में शिवालिक पर्वत श्रृंखला में अवस्थित है।यह शक्तिपीठ हैं श्री माता शाकुम्भरी शक्तिपीठ।इस शक्तिपीठ की देश के हिंदुओं में बड़ी मान्यता है।यह प्रति वर्ष चैत्र एवं आश्विन माह में विशाल मेला लगता है और देश के विभिन्न हिस्सों से श्रद्धालु बड़ी संख्या में पहुंचकर माँ शाकंभरी के दर्शन कर धार्मिक लाभ उठाते है।शाकंभरी देवी ऐतिहासिक चाहमान वंश की कुलदेवी है।
मेले की व्यवस्था यद्यपि सहारनपुर जिला पंचायत परिषद देखती है लेकिन वह केवल तात्कालिक व्यवस्था होती है।मन्दिर पर श्रद्धालु लाखों की संख्या में चढ़ावा चढ़ाते हैं लेकिन इस धन का मेला परिसर में स्थाई परिसंपत्ति निर्माण में अभी तक नाममात्र का अंश भी कभी व्यय नही किया गया है।आज भी चढ़ावे का एक बड़ा हिस्सा रानी जसमौर के खजाने में जाता है और इस प्रकार श्रद्धालुओं द्वारा दिया गया दान मंदिर के विकास,श्रद्धालुओं हेतु सुविधाओं के विकास,सौंदर्यीकरण आदि में कभी खर्च नही हो पाता है, न ही इस धन से मंदिर एवं मेले में अतिरिक्त सुविधाएं जुटाने के लिए आय के अतिरिक्त स्रौत के सृजन के लिए ही कोई उपयोग हो पाता है।
बरसात के समय आज भी मन्दिर प्रबन्धन असहाय नजर आता है।वर्षा के समय शाकुम्भरी खोल में अचानक भारी मात्रा में पानी आ जाने के कारण जिला पंचायत परिषद और मेला प्रबंधन द्वारा की गई सारी व्यवस्थाएं धरी की धरी रह जाती हैं और श्रद्धालुओं तथा मेले में व्यापार करने आये लोगों को बड़ी भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है।मेला प्रबन्धन द्वारा व्यापारियों को छप्पर तिरपाल से बनी अस्थायी दुकानें किराए पर आवंटित की हुई है, जो पानी के तेज बहाव के सामने क्षणभर भी नही ठहर पाती हैं।और पानी का तेज बहाव उनमें रखे सारे सामान को अपने साथ बहाकर ले जाता है जिससे व्यापारियों को भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ती है । जिसके एवज में उंन्हे मेला प्रबन्धन की और से किसी प्रकार की कोई भरपाई भी नही की जाती है। यात्री एवं भारी वाहन तक पानी की तेज धार में बह जाते हैं।आज तक इस आवर्ती समस्या का कोई स्थायी समाधान खोजने की जहमत न तो मेला प्रबन्धन ने उठाई और न ही जिला पंचायत परिषद सहारनपुर ने।
       सहारनपुर जनपद को विश्व के धार्मिक पर्यटन मानचित्र पर स्थापित करने में शाकुम्भरी शक्तिपीठ का विकास एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।यह क्षेत्र हरियाणा, हिमाचल,उत्तराखंड तीन राज्यों से केवल चंद किलोमीटर की भौगोलिक दूरी पर स्थित है।पंजाब एवं जम्मू कश्मीर यहाँ से कुछ सौ किलोमीटर स्थित है।
कटरा (जम्मू) स्थित विश्व प्रसिद्द वैष्णों देवी शक्तिपीठ के भी यह तीर्थ समीपस्थ तीर्थो में से एक है।
   इस शक्तिपीठ को विश्व धार्मिक पर्यटन मानचित्र पर स्थान दिलाने के लिए आवश्यक है कि सरकार इसका अधिग्रहण करके इसके इसके प्रबंधन, विकास एवं सौंदर्यीकरण के लिए श्री माता वैष्णों देवी श्राइन बोर्ड की तर्ज पर श्री माता शाकुम्भरी देवी श्राइन बोर्ड का गठन कर।जिसका अध्यक्ष राज्यपाल या मुख्यमंत्री हो तथा प्रशासक के रुप मे सरकार किसी पेशेवर की नियुक्ति करे जो प्रबंधन अथवा प्रशासन से जुड़ा व्यक्ति अथवा अधिकारी हो सकता है।इस शक्तिपीठ की 10 किमी की परिधि में सहंसरा ठाकुर, माँ रक्तदंतिका, प्रसिद्द जलकुंडी आदि प्रमुख धार्मिक स्थल है।क्षेत्र के विकास के लिए भूगर्भवेत्ता, पर्यावरणविद,अर्चिटेक्ट, पर्यटन विशेषज्ञ, डेकोरेटर, भूगोलविद, आदि को मिलाकर एक टीम का गठन होना चाहिए जो इस क्षेत्र की विभिन्न पेचीदगियों को ध्यान में रखकर इसके विकास की समग्र योजना श्राइन बोर्ड एवं सरकार के समक्ष रखे।यहां रोपवे शक्तिपीठ को सहंसरा ठाकुर एवं जलकुंडी को जोड़ सकता है जिससे इस क्षेत्र की खूबसूरती के साथ साथ बोर्ड की अतिरिक्त आय भी होगी।बोर्ड यहां मेले के लिए स्थाई परिसंपत्तियों के रूप में दुकानें एवं कॉम्प्लेक्स एवं होटल,धर्मशाला वाहनों के लिए पार्किंग, चिकित्सालय आदि का भी निर्माण कर सकता है,और इससे सृजित आय से मन्दिर की व्यवस्था,प्रसाद,कर्मचारियों का वेतन,सौंदर्यीकरण, प्रचार प्रसार आदि कार्य कर सकता है।भैरव मंदिर के पास प्रसाद काम्प्लेक्स बनाकर मन्दिर के पास बनी दुकान स्थानांतरित की जा सकती है जिससे मन्दिर के पास से अतिक्रमण भी हटेगा और श्रद्धालुओं को गमन हेतु सुगमता होगी, सौंदर्यीकरण भी बढ़ेगा। भैरव मंदिर को शाकुम्भरी द्वार से पुल द्वारा जोड़ा जा सकता है।यहां से एक पुल सहंसरा ठाकुर मार्ग को जोड़ते हुए शनराचार्य आश्रम के पास से मन्दिर तक मार्ग सुगम कर सकता है।ऐसा होने से अचानक जल आ जाने से भी कोई नुकसान नही होगा और जल का अबाधित प्रवाह भी हो सकेगा।मुख्य मंदिर के ऊपर स्थित पंचवटी आश्रम तक सुगम पहुंच के लिए मार्ग निर्माण एवं पंचवटी का सौंदर्यीकरण करने से श्रद्धालुओं को धार्मिक पर्यटन का बेहतर लाभ हो सकेगा।बोर्ड के गठन से सरकार इस क्षेत्र के लोगों का स्थानीय स्तर पर ही रोजगार उपलब्ध करा सकती है।मंदिर के विकास से अन्य सहायक क्षेत्रों का विकास होगा जो क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का विविधीकरण करेगी अर्थात लोगों के पास गैर-कृषि क्षेत्र में तो आय के अतिरिक्त साधन जुटेंगे ही बल्कि क्षेत्र में पर्यटन का भी विकास होगा।हिमालय की खूबसूरती का आर्थिक लाभ हमे पर्यटन केंद्र के विकास एवं उससे आय के रूप में मिलेगा। वैष्णों माता के दर्शन को जाने वाले श्रद्धालु भी अपनी तीर्थ यात्रा में शाकुम्भरी माता की यात्रा को जोड़ सकेंगे।
(प्रस्तुत लेख में लेखक की निजिराय व्यक्त की गई है)