Tuesday, December 26, 2017

मुझे मेरे तालाब लौटा दो..!

देखते ही देखते गांव देहात के जोहड़/तालाब विलुप्त हो गए ।
ठीक वैसे ही जैसे जीव जंतुओं की अनेक प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं।आखिर कहां गए ये तालाब ? कौन है जो अगस्त्यमुनि के समुद्री पी जाने की भांति देश के तालाबों को न केवल पी गया बल्कि उन्हें समूल नष्ट कर दिया?
हर गांव के तालाबों पर कुछ लालची लोगों की प्रारम्भ से ही नजर रही है।
हथछोया का उदाहरण लेते हैं जहां
विशाल डाब्बर पर शुरू से ही लोगों की गिद्द दृष्टि रही है। शोक-समंदर इस लालच की पूर्ति का एक बड़ा माध्यम बना। यह स्थिति सिर्फ हथछोया की नहीं है वरन ग्रामीण जीवन की एक कड़वी सच्चाई है। शोक समंदर एक जलीय कुकुरमुत्ता है जो दिन दूनी और रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ता है। यदि हम शोक-समंदर को "जलीय दानव" की संज्ञा दे तो बिलकुल भी गलत नहीं होगा। हथछोया मे इस जलीय दानव का सबसे पहले प्रवेश गुल्ही मे किसी शातिर "भू-भक्षक" ने कराया। देखते ही देखते इस दानव ने सम्पूर्ण गुल्ही का भक्षण कर लिया । इस की एक खास विशेषता यह है कि यह जल की समस्त ऑक्सिजन को ग्रस जाता है और जलीय जीवन का खात्मा कर देता है। इसका जो भी हिस्सा जल की एक विशेष मात्रा से ऊपर रह जाता है वह तेजी से सूख जाता है और तालाब के भराव का सबसे सुलभ और सस्ता साधन है। गुल्ही के बाद देववाला और विशाल डाब्बर इस "जलीय दानव" के शिकार बने। पशुओं के गोबर और घरेलू कूड़े के साथ मिलकर यह तालाबों के भराव के लिए बेहतरीन उपाय है। इसी विधि से गाँव के सभी तालाबों का शिकार किया गया।
गाँव की जैव-विविधता पर भी इस भू-भक्षण का विपरीत प्रभाव पड़ा। गाँव मे मुर्गाबी, बत्तख,नाकू आदि अनेक जलीय जीव बहुतायत मे पाये जाते थे जो अब सिर्फ चिड़िया घरों मे ही देखने को मिलते है।  सिंघाड़े की खेती से भी गाँव के बहुत से कश्यप परिवार एक अच्छी ख़ासी धन राशि कमाते थे जो अब बिलकुल समाप्त हो गया। वर्षाकाल के बाद भभूल के फूल ( सफ़ेद रंग के कमल के समान फूल) गाँव की शोभा को चार चंद लगाया करते थे , जो अब देखने को नहीं मिलते है। हम लोग अक्सर "भभूल के फूल" से हार बनाकर पहना करते थे।कल जहां खुशियो और आबादी के भभूल खिला करते थे, आज वहाँ शोक-समंदर के "बर्बादी के फूल" गाँव के दुर्भाग्य पर अपनी कुटिल मुस्कान बिखेर रहे है।
           गाँव के विशाल तालाब एक और जहां इसके भूमिगत जल के प्रमुख साधन थे, वहीं दूसरी और ये पशुपालन के भी बड़े प्रेरक कारक थे। ग्रामीण अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार सदियों से पशुपालन रहा है। हरा चारा और प्रचुर जल पशुपालन के प्रमुख अवयव है। तालाबों के विनाश के कारण गाँव मे पशुपालन पर भी विपरीत असर पड़ा है। रोजाना शाम के समय तालाबों मे पशुओं के झुंडों का नहाना एक आम दृश्य हुआ करता था। लोग अपने पशुओं को पानी पिलाने और नहलाने के लिए इन तालाबों मे उतारा करते थे। लेकिन अब जब गाँव मे तालाब लगभग नष्ट हो गए है, पशुपालन के लिए जल उपलब्धता समाप्त प्राय हो गई है।
   सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर तालाबों का अतिक्रमण इतनी आसानी से कैसे हो गया जबकि ये समाज की साझा संपत्ति थे?
   मेरा मत है कि 1990 के दशक में देश मे पंचायत राज अधिनियम की स्थापना के साथ ही तालाबों की मौत की पटकथा भी लिख दी गई।इस अधिनियम के द्वारा ग्राम पंचायतों के चुनाव प्रारम्भ हुए जिससे ग्राम सभाएं भी घटिया एवं स्वार्थी राजनीति का केंद्र बन गई।गाँवो में पार्टीबाजी शुरू हो गई ।ग्राम प्रधान पद के वर्तमान एवं सम्भावित सभी प्रत्याशियों ने अपने समर्थकों को खुश करने के लिए सरकारी भूमि, गौचरान भूमि एवं तालाबों के अतिक्रमण के समय न केवल मौन साध लिया वरन उनको इस कार्य के लिए उकसाया भी।ग्राम प्रधान, ग्राम सचिव और ग्राम पटवारी सरकारी भूमि एवं तालाबों के संरक्षक होते है लेकिन इन तीनों की मिलीभगत से तालाब की भूमि बंदरबांट की भेंट चढ़ गई! तालाबों का अतिक्रमण करते समय दबंग डरे नही और शेष समाज ने अकर्मण्यता की चादर ओढ़ ली जिसका दुष्परिणाम  जोहड़ों/तालाबों के विलुप्तीकरण के रूप में सामने आया।कुछ लोगों के स्वार्थों की कीमत सम्पूर्ण समाज चुका रहा है।
ग्राम प्रधान,ग्राम सचिव और ग्राम पटवारी ही वह शक्तियां हैं जो अगस्त्यमुनि से भी शक्तिशाली सिद्ध हुई हैं।ये न केवल तालाबों का पानी पी गए वरन उनकी समस्त भूमि भी निगल गए।इन्ही की जिम्मेदारी तय करके कार्यवाही होगी तो शायद मेरे वो तालाब मुझे लौटाए जा सकें।

Saturday, December 23, 2017

अवार्ड

सहारनपुर, 23 दिसम्बर
पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने, पर्यावरण सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए कार्य करने एवं सामाजिक क्षेत्र में विशेष सेवा के लिए सहारनपुर में तैनात वाणिज्य कर/राज्य जीएसटी विभाग के असिस्टेंट कमिश्नर सुनील सत्यम को इसड़ा राष्ट्रीय ग्रीन अवार्ड 2017 के लिए चुना गया है। यह खबर मिलने पर सुनील सत्यम के परिवार एवं समर्थकों में हर्ष व्याप्त हो गया है। कई साथी अधिकारियों ने मिलकर इस उपलब्धि के लिए सुनील सत्यम को व्यक्तिगत रूप से बधाई दी है।शहर एवं जिले के कई सामाजिक संगठनों ने भी इस उपलब्धि के लिए सुनील सत्यम को बधाई दी है।
सुनील सत्यम को 28 दिसम्बर को दिल्ली के मावलंकर हॉल में  पर्यावरण संरक्षण पर होने वाले राष्ट्रीय सम्मेलन में इसड़ा नेशनल ग्रीन अवार्ड 2017 से सम्मानित किया जाएगा।
इसड़ा पर्यावरण के क्षेत्र में कार्य करने वाला विश्वविख्यात संगठन है।
इसड़ा के राष्ट्रीय महासचिव डॉ जितेंद्र ने सुनील सत्यम को ईमेल के द्वारा इसड़ा के इस निर्णय के विषय में अवगत कराते हुए 28 दिसम्बर को दिल्ली में होने वाले राष्ट्रीय सम्मेलन में उपस्थित होकर इसड़ा ग्रीन अवार्ड 2017, प्राप्त करने एवं ग्रामीण तालाबों के संरक्षण तथा पर्यावरण सुरक्षा पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया है।
सुनील सत्यम छात्र जीवन से ही पर्यावरण एवं समाज सेवा के क्षेत्र में बेहद सक्रिय है।सरकारी सेवा में रहते हुए भी उनकी सक्रियता एवं समाज सेवा कार्यों की हमेशा चर्चा होती है।सुनील सत्यम ने वर्ष 2002 में दिल्ली में पर्यावरण एवं पशु पक्षियों के संरक्षण के लिए फिएप नामक संस्था की शुरुआत की थी। फिएप ने देश के अलग अलग हिस्सों में पर्यावरण जागरूकता एवं पशु क्रूरता निवारण के प्रति अनेक राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन किया हैं।पर्यावरण जागरूकता पर देश के अलग अलग समाचार पत्रों में सुनील सत्यम के अनेक लेख भी प्रकाशित हो चुके हैं।
इस समय भी सुनील सत्यम महिला उच्च शिक्षा आंदोलन से जुड़े है जिसके तहत उनके पैतृक गांव हथछोया में प्रेमकुल मिशन ट्रस्ट द्वारा महिलाओं के लिए देवस्थली विद्यापीठ नाम से डिग्री कालेज की स्थापना की जा रही है।हथछोया के आसपास लगभग  20 किलोमीटर के दायरे कोई महिला महाविद्यालय न होने के कारण उनकी शिक्षा पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है।
जीएसटी एक्ट के लागू होने पर भी सुनील सत्यम को जीएसटी का नोडल अधिकारी तथा जीएसटी हेल्पडेस्क का सहारनपुर जिला प्रभारी नियुक्त किया गया है। सुनील सत्यम ने बताया कि 28 दिसम्बर को दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन में शामिल होकर व्याख्यान देने एवं पुरस्कार ग्रहण करने के लिए उन्होंने उच्चाधिकारियों को मेल करके अनुमति मांगी है।अनुमति मिलने पर वह पुरस्कार ग्रहण करने दिल्ली जाएंगे। उन्होंने बताया कि इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए चयनित होने पर वह गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं।इस पुरस्कार से उनके पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों को न केवल मान्यता मिली है वरन इससे भविष्य में और ज्यादा कार्य करने की ऊर्जा भी प्राप्त हुई है।
         वरिष्ठ भाजपा नेता रामपाल पुंडीर, दिनेश सेठी, राजीव चौधरी, अभाविप के विभाग संगठन मंत्री राजेन्द्र राष्ट्रवादी, विहिप के जिला प्रचार प्रमुख सचिन गुर्जर,राष्ट्रीय युवा गुर्जर महासभा के राष्ट्रीय महासचिव लोकेश तंवर, आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय सदस्य लोकेश सलारपुर एवं पत्रकार बलबीर तोमर ने सुनील सत्यम को मिलकर बधाई दी है।

Friday, December 1, 2017

फेसबुक से 2011

भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार प्रदान किये गए हैं.मौलिक अधिकार व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार हैं जो उन्हें किसी भेदभाव के बने प्रदान करने की संविधान के अनुच्छेद ३२ के द्वारा गारंटी प्रदान की गई है.इसके अतिरिक्त कोई व्यक्ति अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान के अनुच्छेद २२६ के तहत है कोर्ट में भी अर्जी दे सकता है. आये दिन हम समाचार पत्रों के माध्यम से पढ़ते भी रहते  है की फला व्यक्ति ने रित दायर की..यह सब जानकारी आप तक पहुँचाना मेरा मकसद नहीं है क्योंकि यह सर्व विदित है. मई सिर्फ यह सवाल उठाना चाहता हूँ की जब संविधान ने अनुच्छेद ३२ के तहत यह व्यवस्था की है की अगर किसी दुसरे व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा हो तो कोई अन्य व्यक्ति भी उसके अधिकारों की रक्षा की सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगा सकता है तो क्या यह जरूरी नहीं है की लोगो के कर्त्तव्य पालन को भी अब संविधानिक प्रावधानों के जरिये अनिवार्य क्यों न बनाया जाये ? समस्याए यही से पैदा होती है क्योंकि हम सिर्फ अधिकारों के प्रति जागरूक है..कर्तव्यों से हमारा कोई लेना देना नहीं है.
  इस बात का सन्दर्भ मैंने अनावश्यक ही नहीं लिया है.भारतीय संविधान में बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक व्यक्ति को व्यस्क मताधिकार प्रदान किया गया है, जो अधिकार भी है एवम कर्तव्य भी.प्रत्येक भर्ती का यह परम कर्तव्य है की वह भारत गणराज्य को एक लोकतान्त्रिक सरकार चुन कर दे.
मतदान के दिन को हम अवकाश पर्व के रूप में मानाने के आदि हो गए हैं..अपने आप को बुद्धिजीवी कहलाने वाले व्यक्ति इस दिन ताश खेलकर या फिर कुछ जरूरी कम करके अपना समय व्यतीत करते है..शराब की चाहत वाले और कुछ ऐसे लोग जिन्हें अपने मत की कीमत ही मालूम नहीं होती १००-२०० रूपये में अपना मत बेच देते हैं.उन्हें इस बात से कोई लेना देना नहीं की उनके मत से कोई कलमाड़ी जीतेगा या कोई ए राजा ? कथित बुद्धिजीवी फिर या तो चुनाव समीक्षा करते हुवे मीडिया माध्यमों में नजर आते हैं या उनमे से कुछ परिवर्तन की बड़ी बड़ी बाते करते है...अथवा फिर कुछ सुधारक आंदोलनों के माध्यम से हाय तौबा मचाते है.
अधिकारों का दूसरा पहलु कर्त्तव्य ही होता है फिर यह कैसे संभव है की अधिकार तो अनिवार्य बना दिए जाये और कर्तव्यों को विवेक पर छोड़ दिया जाये. प्रत्येक व्यक्ति सरकार से अपने सभी अधिकारों की सुरक्षा चाहता है.
कोई भी चुनाव सुधार बेमानी ही रहेगा अगर वोट % 50 के आस- पास ही बना रहा.अनिवार्य मतदान का कानून चुनाव सुधार की आवश्यक शर्त है. अगर हमें अधिकार चाहिए तो हमें अपने कर्तव्यों का भी कड़ी से पालन करना होगा.कर्तव्य पालन नहीं तो अधिकारों में कटौती जरुरी है.अगर कोई व्यक्ति मतदान न करे तो उसके राशन कार्ड जैसे अधिकारों को स्थगित किया जा सकता है..या कोई दूसरा उपाय खोजा जा सकता है..
  हमारे देश में कोई अच्छी बात तभी अच्छी होती है जब उसे कोई शक्तिमान या सत्त्ताधारी दल का कद्दावर नेता कहे.
  नरेन्द्र मोदी ने अनिवार्य मतदान की बात की थी लेकिन उसे अनसुना कर दिया गया था.यही बात अगर राहुल गाँधी या सोनिया गाँधी ने कही होती तो उनकी तारीफ में कसीदे पढ़े जाते.. आवश्यक है की हर सही बात को सही और गलत को गलत कहने का साहस जुटाएं हम. चुनाव सुधारों की बात करते समय तार्किकता और व्यवहारिकता को ध्यान में रखने की जरूरत है..बाते और भी है चलती रहेगी..

कुंवर सत्यम,
दिल्ली विश्व विद्यालय, दिल्ली.

Sunday, November 26, 2017

इस्लाम की इस्लाम के खिलाफ जेहाद

इसके प्रारम्भ से आज तक इस्लाम जिहाद के बल पर फला फूला।हमें भारतीय इतिहास में भी ऐसे अनेक दृष्टान्त मिलते है जब अपने राजनीतिक व उपनिवेशिक लाभ के लिए मुस्लिम शासकों/सुधारकों द्वारा जेहाद का नारा दिया गया।
खानवा के युद्ध में वर्ष 1528 में बाबर ने भारतीय राजाओं के खिलाफ जेहाद की घोषणा करके विजयोपरांत"गाजी" की पदवी धारण की।बाद में 19वीं सदी में सैय्यद अहमद रायबरेलवी ने अंग्रेज एवं पंजाब के सिख शासकों के खिलाफ जिहाद छेड़ी।
भारत में इस्लाम का प्रचार:
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शाहजहाँ और औरंगजेब जैसे कट्टर मुगल शासकों की तलवार के बल पर भारत मे धर्मान्तरण की प्रक्रिया बड़ी तेज गति से चली।जिसके परिणामस्वरूप हजारों की संख्या में दलित एवं पिछड़े लोगों ने भय एवं लालच के कारण इस्लाम पन्थ को अपना लिए। इसके अतिरिक्त इस्लामी शासकों के पीछे पीछे सूफी संत इस्लाम पंथ के प्रचार के लिए पहुंचे।सूफियों ने हिन्दू, बौद्ध, ईसाइयत के साथ समन्वय करते हुए उनसे अनेक बातें ग्रहण की।जैसे हिन्दू धर्म से योग,प्राणायाम, कीर्तन-संगीत (समा) जैन धर्म से उपवास, फना आदि ग्रहण करके एक मिश्रित सांस्कृतिक वातावरण तैयार किया।इसी को गंगा जमुनी तहजीब नाम दिया गया।सूफियों ने लालच,फरेब, सेवा, तांत्रिक विद्या, भय आदि अनेक विधियों द्वारा हिंदुओं का इस्लाम में धर्मान्तरण किया। इस धर्मान्तरण को एक विशेषता यह थी कि इस्लाम में परिवर्तित लोगों में धार्मिक कट्टरता के लिए कोई जगह नही थी।सूफियों की दरगाह/ खानकाह श्रद्धा का केंद्र बनकर उभरी जहां सुन्नी एवं शिया मुस्लिमों के साथ साथ हिन्दू भी बड़ी संख्या में आज भी जाते हैं।इन दरगाहों पर जाकर मुस्लिम सजदा करते हैं, मन्नते मांगते हैं, चादर-प्रसाद भी चढ़ाते हैं। यह सब हिन्दू संस्कृति का इस्लाम पर प्रभाव है जो सूफ़ियत के मार्ग से प्रविष्ट हुआ है।सूफी दरगाहों पर संगीत (समा) की महफ़िलें सजती हैं।जिनमें अल्लाह की प्रार्थना के लिए कव्वालियां गाई जाती है।कव्वाली विधा का जनक अमीर खुशरो को माना जाता है।वह चिश्ती सूफी निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे।

सल्फी प्रमेय
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सऊदी अरब में 18 वी सदी में अब्दुल वहाब ने एक नई इस्लामी विचारधारा को जन्म दिया।इस विचारधारा ने उन समस्त परिवर्तनों को कुफ्र एवं शिर्क (मूर्ति पूजा) घोषित कर दिया जो इस्लाम में पहले तीन खलीफों के समय के बाद प्रचलित हुई।अब्दुल वहाब ने कुरान एवं हदीश के अलावा इज्मा एवं कयास को भी गैर-इस्लामी एवं दंडनीय घोषित कर दिया।इसका अर्थ था इस्लाम में धार्मिक नवाचारों एवं प्रगतिशीलता के द्वार हमेशा के लिए बंद कर देना।
19 वीं सदी में वहाबियत का आधुनिक एवं अत्यंत रूढ़िवादी एवं अधिक असहिष्णु संस्करण सल्फियत/अहले हदीश के रूप में सामने आया।सल्फियत ने अकलियत को भी गैर-इस्लामी घोषित कर दिया।अर्थात इस्लाम के बारे में क्या,क्यों,कब, कहाँ और कैसे सवाल पूछना भी कुफ्र है।इसकी सजा केवल मौत है।
सल्फी अकलियत को गैर-इस्लामी घोषित करके ही कट्टर मोमिनों को मुजाहिदीन बना सकते हैं।सल्फी की राष्ट्र-राज्य सत्ताओं को गैर-इस्लामी एवं कुफ्र घोषित करके सम्पूर्ण विश्व में केवल "एक खलीफा का शासन" स्थापना की प्रमेय, सऊदी अरब को आतंकवादी विचारधारा सल्फियत में राजनीतिक-धार्मिक निवेश करने को प्रेरित करती है।
सल्फी विचारधारा को सऊदी अरब इस लालच में प्रायोजित कर रहा है कि यदि कभी सल्फी जेहादी दुनिया को दारुल-इस्लाम में बदलकर खलीफा का शासन स्थापित करने में कामयाब हो पाए तो उसे इस्लाम का मूल स्थान होने के कारण स्वाभाविक रूप से खलीफा पद हासिल हो सकता है।
अपनी विचारधारा को आतंक के बल पर प्रसारित करने के लिए सल्फियत ने व्यावसायिक रूप से एक व्यवस्थित जिहाद छेड़ी है।इस जिहाद को तीन इकाइयों के द्वारा संपादित किया जा रहा है।
अलमिशफू ( स्लीपर सेल), नाशित (राजनीतिक कार्यकर्ता) एवं जेहादी ( आत्मघाती दस्ते)

जेहाद किसके खिलाफ ?
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सल्फी प्रमेय के लिए धार्मिक रूप से कट्टर मोमिन तैयार करना जरुरी है।यह तभी सम्भव है जब मुस्लिमों को हर प्रकार से उनकी जड़ों से काटकर उन्हें आम स्थानीय समाज से अलगाव की राह पर लाया जाये।लेकिन यह एक ऐसा मार्ग है जिसने गैर-मुस्लिमों (काफिरों) के साथ किये जाने वाली जेहाद की तोप का मुंह खुद उदारवादी आधुनिक इस्लाम के विरुद्ध मोड़ दिया।सल्फियत के लिए इस्लाम के भीतर ही पर्याप्त रूप से काफ़िर मौजूद हैं।जिनके विरुद्ध जेहाद जरूरी समझा जा रहा है।सूफीवादी, बरेलवी, शिया, अहमदिया, कादियानी उदार किस्म के मुस्लिम है।खुद इज्मा एवं कयास में विश्वास रखने वाला आम मुस्लिम भी सल्फी इस्लाम के लिए काफिर है, जिसके लिए मौत मुकर्रर करना जेहादी के लिए जरूरी है। 24 नवम्बर 2017 को मिश्र के सिनाई प्रायद्वीप में सूफी मस्जिद पर सेल्फियों ने हमला किया ।इस हमले में 235 नमाजी उस समय मारे गए जब वे नमाज पढ़ रहे थे।
यहां दो बातें महत्वपूर्ण एवं बिल्कुल स्पष्ट हैं:
1- सल्फी जेहाद इस्लाम के उदार पंथों जिनमे सूफी भी हैं, के खिलाफ है।
2- इस्लाम खतरे में है और उसे यह खतरा हिंदुओं या ईसाइयों से नही बल्कि खुद इस्लाम से ही है।
असहिष्णुता का अतिवादी संस्करण सल्फियत/वहाबी/अहले हदीश हमेशा "इस्लाम खतरे में" का नारा लगाता रहा है जिसके निहितार्थ अब दुनिया के सामने प्रकट हो रहे हैं।यानि सल्फी इस्लाम मुसलमानों को खतरा दिखाकर अपना कट्टरवादी एजेंडा चलाता रहा है।वह खुद को ,इस्लाम के सबसे घातक शत्रु के रुपवमे तैयार करता रहा है।

इस्लामी देशों में जंग क्यों?
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सल्फी/अहले हदिशी इस्लाम के अनुयायी अपने मदरसों एवं मस्जिदों के पाठ्यक्रम में जहर घोलकर मासूम बच्चों को पिलाते हैं।उनके पाठ्यक्रम का जरूरी अंश है कि " राष्ट्र-राज्य" सरकारें गैर-इस्लामी एवं कुफ्र हैं।पूरी दुनिया मे खलीफा की हुकूमत कायम करनेबके लिए जब भी हमारे पास ताकत होगी तो हम उन गैर-इस्लामी हुकूमतों को उखाड़ फेंकेंगे। इस्लाम बाहुल्य देशों में उन गैर-इस्लामी हुकूमतों को उखाड़कर खलीफा के शासन की स्थापना के लिए जंग जारी है।जिसमें मुस्लिमों द्वारा,मुस्लिमों के लिये, मुस्लिमों के खिलाफ़ जेहाद जारी है। मिश्र में 2011 में मुस्लिम ब्रदरहुड द्वारा ऐसी सरकार को उखाड़ फेंका गया था।जिसके बाद लगातार खून खराबा चालू है।

Sunday, November 19, 2017

अयोध्या

साभार
अयोध्या की कहानी जिसे पढ़पकर आप रो पड़ेंगे।
कृपया इस लेख को पढ़ें, तथा प्रत्येक हिन्दूँ मिञों को अधिक से अधिक शेयर करें।
जब बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस समय जन्म भूमि सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के
अधिकार क्षेत्र में थी। महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुन कर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकान अयोध्या आये । महात्मा जी के शिष्य बनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने योग और सिद्धियाँ प्राप्त कर ली और उनका नाम भी महात्मा श्यामनन्द के ख्यातिप्राप्त शिष्यों में लिया जाने लगा।
ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी महात्मा श्यामनन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा। जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी,
हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना । अत:
जलालशाह ने अपने काफिर गुरू की पीठ में छुरा घोंप कर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार किया की यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद
बनवा दी जाये तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए ।
सर्वप्रथम जलालशाह और ख्वाजा बाबर के विश्वासपात्र बने और दोनों ने अयोध्या को खुर्द मक्का बनाने के लिए जन्मभूमि के आसपास की जमीनों में बलपूर्वक मृत मुसलमानों को दफन करना शुरू किया॥ और मीरबाँकी खां के माध्यम से बाबर को उकसाकर मंदिर के विध्वंस का कार्यक्रम बनाया। बाबा श्यामनन्द जी अपने मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख के बहुत दुखी हुए और अपने निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ।

दुखी मन से बाबा श्यामनन्द जी ने रामलला की मूर्तियाँ सरयू में प्रवाहित किया और खुद हिमालय की और
तपस्या करने चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर रामलला की रक्षा के लिए खड़े हो गए। जलालशाह
की आज्ञा के अनुसार उन चारो पुजारियों के सर काट
लिए गए. जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने
की घोषणा हुई उस समय भीटी के राजा महताब सिंह
बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए निकले थे,अयोध्या पहुचने पर रास्ते में उन्हें ये खबर मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी और अपनी छोटी सेना में रामभक्तों को शामिल कर १ लाख चौहत्तर हजार लोगो के साथ बाबर की सेना के ४ लाख ५० हजार सैनिकों से लोहा लेने निकल पड़े।
रामभक्तों ने सौगंध ले रक्खी थी रक्त की आखिरी बूंद तक लड़ेंगे जब तक प्राण है तब तक मंदिर नहीं गिरने
देंगे। रामभक्त वीरता के साथ लड़े ७० दिनों तक घोर संग्राम होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत
सभी १ लाख ७४ हजार रामभक्त मारे गए। श्रीराम जन्म भूमि रामभक्तों के रक्त से लाल हो गयी। इस भीषण
कत्ले आम के बाद मीरबांकी ने तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया । मंदिर के मसाले से ही मस्जिद का निर्माण हुआ
पानी की जगह मरे हुए हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल किया गया नीव में लखौरी इंटों के साथ ।
इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है की एक लाख चौहतर हजार हिंदुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीरबाँकी अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान मे सफल हुआ और उसके बाद जन्मभूमि के चारो और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया..
इसी प्रकार हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज बाराबंकी गजेटियर में लिखता है की " जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बना के लखौरी ईटों की नीव मस्जिद बनवाने के लिए दी गयी थी।
उस समय अयोध्या से ६ मील की दूरी पर सनेथू नाम का एक गाँव के पंडित देवीदीन पाण्डेय ने वहां के आस पास के गांवों सराय सिसिंडा राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय क्षत्रियों को एकत्रित किया॥ देवीदीन पाण्डेय ने सूर्य वंशीय क्षत्रियों से कहा भाइयों आप लोग मुझे अपना राजपुरोहित मानते हैं ..अप के पूर्वज श्री राम थे
और हमारे पूर्वज महर्षि भरद्वाज जी। आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मभूमि को मुसलमान आक्रान्ता कब्रों से पाट रहे हैं और खोद रहे हैं इस परिस्थिति में हमारा मूकदर्शक बन कर जीवित रहने की बजाय जन्म भूमि की रक्षार्थ युद्ध करते करते वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा॥

देवीदीन पाण्डेय की आज्ञा से दो दिन के भीतर ९० हजार क्षत्रिय इकठ्ठा हो गए दूर दूर के गांवों से लोग समूहों में इकठ्ठा हो कर देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में जन्मभूमि पर
जबरदस्त धावा बोल दिया । शाही सेना से लगातार ५ दिनों तक युद्ध हुआ । छठे दिन मीरबाँकी का सामना देवीदीन पाण्डेय से हुआ उसी समय धोखे से उसके अंगरक्षक ने एक लखौरी ईंट से पाण्डेय जी की खोपड़ी पर वार कर दिया। देवीदीन पाण्डेय का सर बुरी तरह फट गया मगर उस वीर ने अपने पगड़ी से खोपड़ी से बाँधा और तलवार से उस कायर अंगरक्षक का सर काट दिया।
इसी बीच मीरबाँकी ने छिपकर गोली चलायी जो पहले
ही से घायल देवीदीन पाण्डेय जी को लगी और वो जन्म भूमि की रक्षा में वीर गति को प्राप्त हुए.. जन्मभूमि फिर से 90 हजार हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। देवीदीन पाण्डेय के वंशज सनेथू ग्राम के ईश्वरी पांडे का पुरवा नामक जगह पर अब भी मौजूद हैं॥
पाण्डेय जी की मृत्यु के १५ दिन बाद हंसवर के महाराज
रणविजय सिंह ने सिर्फ २५ हजार सैनिकों के साथ
मीरबाँकी की विशाल और शस्त्रों से सुसज्जित सेना से
रामलला को मुक्त कराने के लिए आक्रमण किया । 10
दिन तक युद्ध चला और महाराज जन्मभूमि के रक्षार्थ
वीरगति को प्राप्त हो गए। जन्मभूमि में 25 हजार हिन्दुओं का रक्त फिर बहा। रानी जयराज कुमारी हंसवर के स्वर्गीय महाराज रणविजय सिंह की पत्नी थी।

जन्मभूमि की रक्षा में महाराज के वीरगति प्राप्त करने के बाद महारानी ने उनके कार्य को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और तीन हजार नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल दिया और हुमायूं के समय तक उन्होंने छापामार युद्ध जारी रखा। रानी के गुरु स्वामी महेश्वरानंद जी ने रामभक्तों को इकठ्ठा करके सेना का प्रबंध करके जयराज कुमारी की सहायता की। साथ
ही स्वामी महेश्वरानंद जी ने सन्यासियों की सेना बनायीं इसमें उन्होंने २४ हजार सन्यासियों को इकठ्ठा किया और रानी जयराज कुमारी के साथ , हुमायूँ के समय में कुल १० हमले जन्मभूमि के उद्धार के लिए किये। १०वें हमले में शाही सेना को काफी नुकसान हुआ और जन्मभूमि पर
रानी जयराज कुमारी का अधिकार हो गया।
लेकिन लगभग एक महीने बाद हुमायूँ ने पूरी ताकत से
शाही सेना फिर भेजी ,इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद
और रानी कुमारी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई सेना के साथ मारे गए और जन्मभूमि पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया। श्रीराम जन्मभूमि एक बार फिर कुल 24 हजार सन्यासियों और 3 हजार वीर नारियों के रक्त से लाल हो गयी। रानी जयराज कुमारी और स्वामी महेश्वरानंद जी के बाद यद्ध का नेतृत्व स्वामी बलरामचारी जी ने अपने हाथ में ले लिया। स्वामी बलरामचारी जी ने गांव गांव में घूम कर रामभक्त हिन्दू युवकों और सन्यासियों की एक मजबूत सेना तैयार करने का प्रयास किया और जन्मभूमि के उद्धारार्थ २० बार आक्रमण किये. इन २० हमलों में काम से काम १५ बार स्वामी बलरामचारी ने जन्मभूमि पर अपना अधिकार कर लिया मगर ये अधिकार अल्प समय के लिए रहता था थोड़े दिन बाद बड़ी शाही फ़ौज आती थी और जन्मभूमि पुनः मुगलों के अधीन हो जाती थी..जन्मभूमि में लाखों हिन्दू
बलिदान होते रहे। उस समय का मुग़ल शासक अकबर था।

शाही सेना हर दिन के इन युद्धों से कमजोर हो रही थी..
अतः अकबर ने बीरबल और टोडरमल के कहने पर खस
की टाट से उस चबूतरे पर ३ फीट का एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया.
लगातार युद्ध करते रहने के कारण स्वामी बलरामचारी का स्वास्थ्य गिरता चला गया था और प्रयाग कुम्भ के अवसर पर त्रिवेणी तट पर स्वामी बलरामचारी की मृत्यु
हो गयी ..
इस प्रकार बार-बार के आक्रमणों और हिन्दू जनमानस के
रोष एवं हिन्दुस्थान पर मुगलों की ढीली होती पकड़ से
बचने का एक राजनैतिक प्रयास की अकबर की इस कूट नीति से कुछ दिनों के लिए जन्मभूमि में रक्त नहीं बहा।

यही क्रम शाहजहाँ के समय भी चलता रहा। फिर औरंगजेब के हाथ सत्ता आई वो कट्टर मुसलमान था और
उसने समस्त भारत से काफिरों के सम्पूर्ण सफाये का संकल्प लिया था। उसने लगभग 10 बार अयोध्या मे मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलकर यहाँ के सभी प्रमुख मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ डाला।
औरंगजेब के हाथ सत्ता आई वो कट्टर मुसलमान था और
उसने समस्त भारत से काफिरों के सम्पूर्ण सफाये का संकल्प लिया था। उसने लगभग 10 बार अयोध्या मे
मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलकर यहाँ के सभी प्रमुख मंदिरों की मूर्तियों को तोड डाला।
औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्री रामदास जी महाराज जी के शिष्य श्री वैष्णवदास जी ने जन्मभूमि के
उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किये। इन आक्रमणों मे
अयोध्या के आस पास के गांवों के सूर्यवंशीय क्षत्रियों ने
पूर्ण सहयोग दिया जिनमे सराय के ठाकुर सरदार गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह
तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे। ये सारे
वीर ये जानते हुए भी की उनकी सेना और हथियार बादशाही सेना के सामने कुछ भी नहीं है अपने जीवन के
आखिरी समय तक शाही सेना से लोहा लेते रहे। लम्बे समय तक चले इन युद्धों में रामलला को मुक्त कराने के लिए हजारों हिन्दू वीरों ने अपना बलिदान दिया और
अयोध्या की धरती पर उनका रक्त बहता रहा।
ठाकुर गजराज सिंह और उनके साथी क्षत्रियों के
वंशज
आज भी सराय मे मौजूद हैं। आज भी फैजाबाद जिले के आस पास के सूर्यवंशीय क्षत्रिय सिर पर पगड़ी नहीं बांधते,जूता नहीं पहनते, छता नहीं लगाते, उन्होने अपने पूर्वजों के सामने ये प्रतिज्ञा ली थी की जब तक श्री राम जन्मभूमि का उद्धार नहीं कर लेंगे तब तक जूता नहीं पहनेंगे,छाता नहीं लगाएंगे, पगड़ी नहीं पहनेंगे। 1640
ईस्वी में औरंगजेब ने मन्दिर को ध्वस्त करने के लिए जबांज खाँ के नेतृत्व में एक जबरजस्त सेना भेज दी थी, बाबा वैष्णव दास के साथ साधुओं की एक सेना थी जो हर विद्या मे निपुण थी इसे चिमटाधारी साधुओं की सेना भी कहते थे । जब जन्मभूमि पर जबांज खाँ ने आक्रमण किया तो हिंदुओं के साथ चिमटाधारी साधुओं की सेना की सेना मिल गयी और उर्वशी कुंड नामक जगह पर
जाबाज़ खाँ की सेना से सात दिनों तक भीषण युद्ध
किया ।
चिमटाधारी साधुओं के चिमटे के मार से मुगलों की सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार चबूतरे पर स्थित मंदिर की रक्षा हो गयी । जाबाज़ खाँ की पराजित सेना को देखकर औरंगजेब बहुत क्रोधित हुआ और उसने जाबाज़ खाँ को हटाकर एक अन्य सिपहसालार सैय्यद हसन अली को 50 हजार सैनिकों की सेना और तोपखाने के साथ
अयोध्या की ओर भेजा और साथ मे ये आदेश दिया की अबकी बार जन्मभूमि को बर्बाद करके वापस आना है ,यह समय सन् 1680 का था । बाबा वैष्णव दास ने सिक्खों के गुरु गुरुगोविंद सिंह से युद्ध मे सहयोग के लिए पत्र के माध्यम संदेश भेजा । पत्र पाकर गुरु गुरुगोविंद सिंह सेना समेत तत्काल अयोध्या आ गए और ब्रहमकुंड पर अपना डेरा डाला । ब्रहमकुंड वही जगह जहां आज कल गुरुगोविंद सिंह की स्मृति मे सिक्खों का गुरुद्वारा बना हुआ है। बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खों के गुरुगोविंद सिंह रामलला की रक्षा हेतु एकसाथ रणभूमि में कूद पड़े। इन वीरों कें सुनियोजित हमलों से मुगलो की सेना के पाँव उखड़ गये सैय्यद हसन अली भी युद्ध मे मारा गया। औरंगजेब हिंदुओं की इस प्रतिक्रिया से स्तब्ध रह गया था और इस युद्ध के बाद 4 साल तक उसने अयोध्या पर हमला करने की हिम्मत नहीं की। औरंगजेब ने सन् 1664 मे एक बार फिर श्री राम जन्मभूमि पर आक्रमण किया । इस भीषण हमले में शाही फौज ने लगभग 10 हजार से ज्यादा हिंदुओं की हत्या कर दी नागरिकों तक को नहीं छोड़ा। जन्मभूमि हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। जन्मभूमि के अंदर नवकोण के एक कंदर्प कूप नाम का कुआं था, सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुगलों ने उसमे फेककर चारों ओर चहारदीवारी उठा कर उसे घेर दिया।
आज भी कंदर्पकूप “गज शहीदा” के नाम से प्रसिद्ध है, और जन्मभूमि के पूर्वी द्वार पर स्थित है। शाही सेना ने जन्मभूमि का चबूतरा खोद डाला बहुत दिनो तक वह
चबूतरा गड्ढे के रूप मे वहाँ स्थित था । औरंगजेब के क्रूर
अत्याचारो की मारी हिन्दू जनता अब उस गड्ढे पर ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से अक्षत,पुष्प और जल चढाती रहती थी. नबाब सहादत अली के समय 1763 ईस्वी में जन्मभूमि के रक्षार्थ अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के राजकुमार सिंह के नेतृत्व मे बाबरी ढांचे पर पुनः पाँच आक्रमण किये गये जिसमें हर बार हिन्दुओं
की लाशें अयोध्या में गिरती रहीं। लखनऊ गजेटियर
मे कर्नल हंट लिखता है की “लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नबाब ने हिंदुओं और मुसलमानो को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने की इजाजत दे दी पर सच्चा मुसलमान होने के नाते उसने काफिरों को जमीन नहीं सौंपी।
“लखनऊ गजेटियर पृष्ठ 62” नासिरुद्दीन हैदर के समय मे मकरही के राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुनः अपने रूप मे लाने के लिए हिंदुओं के तीन आक्रमण हुये जिसमें
बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गये। परन्तु तीसरे आक्रमण में डटकर नबाबी सेना का सामना हुआ 8वें दिन हिंदुओं की शक्ति क्षीण होने लगी ,जन्मभूमि के मैदान मे हिन्दुओं और मुसलमानो की लाशों का ढेर लग गया । इस संग्राम मे भीती,हंसवर,,मकर ही,खजुरहट,दीयरा अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मलित थे। हारती हुई हिन्दू सेना के साथ वीर चिमटाधारी साधुओं की सेना आ मिली और इस युद्ध मे शाही सेना के चिथड़े उड गये और उसे
रौंदते हुए हिंदुओं ने जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया।
मगर हर बार की तरह कुछ दिनो के बाद विशाल शाही सेना ने पुनः जन्मभूमि पर अधिकार कर लिया और हजारों हिन्दुओं को मार डाला गया। जन्मभूमि में हिन्दुओं का रक्त प्रवाहित होने लगा। नावाब वाजिदअली शाह के समय के समय मे पुनः हिंदुओं ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ आक्रमण किया । फैजाबाद गजेटियर में कनिंघम ने लिखा "इस संग्राम मे बहुत ही भयंकर खूनखराबा हुआ ।दो दिन और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध में सैकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के बावजूद हिन्दुओं नें राम जन्म भूमि पर कब्जा कर लिया। क्रुद्ध हिंदुओं की भीड़ ने कब्रें तोड़ फोड़ कर बर्बाद कर डाली मस्जिदों को मिसमार करने लगे और पूरी ताकत से मुसलमानों को मार-मार कर अयोध्या से खदेड़ना शुरू किया।मगर हिन्दू भीड़ ने
मुसलमान स्त्रियों और बच्चों को कोई हानि नहीं पहुचाई।
अयोध्या मे प्रलय मचा हुआ था ।
इतिहासकार कनिंघम लिखता है की ये अयोध्या का सबसे बड़ा हिन्दू मुस्लिम बलवा था। हिंदुओं ने अपना सपना पूरा किया और औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस बनाया । चबूतरे पर तीन फीट
ऊँची खस की टाट से एक छोटा सा मंदिर बनवा लिया ॥जिसमे पुनः रामलला की स्थापना की गयी। कुछ जेहादी मुल्लाओं को ये बात स्वीकार नहीं हुई और कालांतर में जन्मभूमि फिर हिन्दुओं के हाथों से निकल गयी। सन 1857 की क्रांति मे बहादुर शाह जफर के समय में बाबा रामचरण दास ने एक मौलवी आमिर अली के साथ जन्म भूमि के उद्धार का प्रयास किया पर 18 मार्च सन 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के पेड़ मे दोनों को एक साथ अंग्रेज़ो ने फांसी पर लटका दिया ।
जब अंग्रेज़ो ने ये देखा कि ये पेड़ भी देशभक्तों एवं राम भक्तों के लिए एक स्मारक के रूप मे विकसित हो रहा है तब उन्होने इस पेड़ को कटवा कर इस आखिरी निशानी को भी मिटा दिया...
इस प्रकार अंग्रेज़ो की कुटिल नीति के कारण राम जन्म भूमि के उद्धार का यह एकमात्र प्रयास विफल हो गया ... अन्तिम बलिदान ...
३० अक्टूबर १९९० को हजारों रामभक्तों ने वोट-बैंक के
लालची मुलायम सिंह यादव के द्वारा खड़ी की गईं अनेक
बाधाओं को पार कर अयोध्या में प्रवेश किया और विवादित ढांचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया। लेकिन
२ नवम्बर १९९० को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें
सैकड़ों रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दीं।
सरकार ने मृतकों की असली संख्या छिपायी परन्तु
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार सरयू तट रामभक्तों की लाशों से पट गया था। ४ अप्रैल १९९१ को कारसेवकों के हत्यारे, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इस्तीफा दिया।
लाखों राम भक्त ६ दिसम्बर को कारसेवा हेतु अयोध्या पहुंचे और राम जन्मस्थान पर बाबर के सेनापति द्वारा बनाए गए अपमान के प्रतीक मस्जिदनुमा ढांचे को ध्वस्त कर दिया। परन्तु हिन्दू समाज के अन्दर व्याप्त घोर संगठन हीनता एवं नपुंसकता के कारण आज भी हिन्दुओं के सबसे बड़े आराध्य भगवान श्रीराम एक फटे हुए तम्बू में विराजमान हैं।
जिस जन्मभूमि के उद्धार के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना रक्त पानी की तरह बहाया। आज वही हिन्दू बेशर्मी से इसे "एक विवादित स्थल" कहता है।
सदियों से हिन्दुओं के साथ रहने वाले मुसलमानों ने आज
भी जन्मभूमि पर अपना दावा नहीं छोड़ा है। वो यहाँ किसी भी हाल में मन्दिर नहीं बनने देना चाहते हैं ताकि हिन्दू हमेशा कुढ़ता रहे और उन्हें नीचा दिखाया जा सके।
जिस कौम ने अपने ही भाईयों की भावना को नहीं समझा वो सोचते हैं
हिन्दू उनकी भावनाओं को समझे। आज तक किसी भी मुस्लिम संगठन ने जन्मभूमि के उद्धार के लिए आवाज नहीं उठायी, प्रदर्शन नहीं किया और सरकार पर दबाव नहीं बनाया आज भी वे बाबरी-विध्वंस की तारीख 6 दिसम्बर को काला दिन मानते हैं। और मूर्ख हिन्दू समझता है कि राम जन्मभूमि राजनीतिज्ञों और मुकदमों के कारण उलझा हुआ है।
ये लेख पढ़कर जिन हिन्दुओं को शर्म नहीं आयी वो कृपया अपने घरों में राम का नाम ना लें...अपने रिश्तेदारों से कह दें कि उनके मरने के बाद कोई "राम नाम" का नारा भी नहीं लगाएं।
विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता एक दिन श्रीराम जन्म भूमि का उद्धार कर वहाँ मन्दिर अवश्य बनाएंगे। चाहे अभी और कितना ही बलिदान क्यों ना देना पड़े।

एक रामभक्त...
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