Monday, February 29, 2016

जड़ों को पानी

बजट आते रहे है और भी आते रहेंगे।वर्ष 2016-2017 का बजट आज़ादी के बाद के भारत में अनोखा है।इसकी तुलना यदि की जा सकती है तो वह आज़ाद भारत का पहला बजट ही हो सकता है जिसमे अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र को महत्व दिया गया था।
एक पेड़ को यदि हम फलते-फूलते देखना चाहते है तो हमें उसकी जड़ों को सीचना होता है न कि शाखाओं और तनों को। अर्थव्यवस्था भी एक पेड़ की भांति है जिसकी जड़ कृषि,तना उधोग और शाखाएं सेवा क्षेत्र है।
देश की सरकारे लोक लुभावने बजट लाती रही हैं।लेकिन अर्थव्यवस्था की जड़ो को सीचने की परवाह किसी ने नहीं की।
वर्ष 2016 के बजट में कृषि,मजदूर और गांव तथा गरीब पर दृष्टिपात किया गया है।यही वर्ग है जिसकी सम्पन्नता पर बाकि गतिविधियां निर्भर करती है।किसान,मजदूर और गरीब लोग अपनी आय का आधे से अधिक बाजार में खरीद करने में लगाते है।इस वर्ग की क्रय क्षमता बढ़ने का अर्थ है छोटे मझोले शहरों के बाजारों में रौनक।जो अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने वाले कारक है।गन्ना भुगतान की समस्या ने छोटे,मझोले शहरों की अर्थव्यवस्था की जान निकाल कर रख दी है।देश का किसान,मजदूर,गरीब यदि खुशहाल नहीं है तो अर्थव्यवस्था का इंजन चोक हो जाना लाजिमी है।आज अर्थव्यवस्था उपभोक्ता उत्पादों के इर्दगिर्द ज्यादा संचालित है।यदि ग्राहक ही नहीं होगा तो धनचक्र शुरू ही नहीं हो सकता।
मेरे जैसे नौकरी पेशा लोगों के लिए बजट जरूर निराश करने वाला है।लेकिन यदि अपने क्षुद्र स्वार्थो के आधार पर ही विश्लेषण किया जाये तो यह राष्ट्रीय हितों की अनदेखी होगी।यदि रेस्टॉरेंट में 500 रुपये खर्च करके मेरी जेब से 0.5% की दर से ₹  2.5 किसान कल्याण सेस के रूप में देश के विकास को गति देने के लिए चले जाये तो यह प्रलाप का विषय बिलकुल नहीं है।₹ 500 रेस्टोरेंट में खर्च करने वाला आदमी स्वेच्छा से ₹10 या अधिक तो सर्विस बॉय को टिप दे देता है और ₹20 या अधिक की जूठन थाली में छोड़ देता है।ऐसे में देश के अन्नदाता के कल्याण के लिए 0.5% सेस रूपी योगदान बहुत कम है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि अब हम गांव की और निरंतर देखते रहेंगे।

राष्ट्रवाद के साथ साम्यवादी वर्ग-संघर्ष

राष्ट्रवाद के साथ साम्यवादी वर्ग-संघर्ष
--------------------------सुनील सत्यम
इसकी शुरुआत से ही साम्यवाद की संजीवनी कथित 'वर्ग-संघर्ष" रहा है यानि साम्यवादियों को स्वयं को जीवित रखने के लिए कोई स्थाई शत्रु चाहिए।संघर्ष में ही शत्रुता भी निहित होती है।इसलिए सुविधा और स्वभावनुसार साम्यवादी शत्रु भी चुन ही लेते हैं।भारत और विश्व साम्यवाद में एक प्रमुख अंतर यह रहा है कि जहाँ 1917 की रुसी क्रांति के समय वैश्विक साम्यवाद ने पूंजीवाद को साम्यवाद ने अपने वर्ग संघर्ष का केंद्र माना वहीँ दूसरी और भारत में खुद मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष के लिए कभी परिस्थितियां अनुकूल नहीं रही और यही कारण रहा कि वर्ग संघर्ष के लिए वैश्विक साम्यवाद के विपरीत भारतीय साम्यवादियों को एक स्थायी शत्रु नहीं मिला। इन्होंने समय समय पर वर्ग संघर्ष को भी अलग अलग दिशा में मोड़ दिया। 1934 में ब्रिटिश भारत सरकार ने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया तो इन्होंने 1939 में साम्राज्यवाद के प्रति वर्ग संघर्ष माना और कांग्रेस के साथ हो लिए।
आज़ादी के तत्काल बाद आज़ाद भारत की सरकार साम्यवादी वर्ग संघर्ष के निशाने पर आ गई और साम्यवादियों ने तेलंगाना में विद्रोह कर दिया जो 1948 तक चलता रहा।
प्रारम्भ से ही भारतीय साम्यवाद की निष्ठाएँ वैदेशिक नेतृत्व के प्रति रही है क्योंकि इसकी नीतियां भारतीय पोलित ब्यूरो से नहीं वरन कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से संचालित रही है।1954 में चीन के साम्यवादी चंगुल में फंस जाने के बाद भारतीय साम्यवादी इस मँझदार में फंस गए कि वह रुसी साम्यवाद से संचालित हो या चीनी माओवाद से। और यह असमंजस भारत में साम्यवादी आंदोलन के विघटन का कारण बना। उनकी परराष्ट्रनिष्ठा चीन के भारत पर 1962 के आक्रमण के समय साबित भी हो गई जब अनेक कामरेड चीनी आक्रमण के समय चीन के साथ खड़े नजर आये और उन्हें "दिल्ली दूर-बीजिंग पास" नज़र आया।
ज्यों ज्यों देश में संघ का प्रभाव बढ़ता गया त्यों त्यों साम्यवादियों ने अपने वर्ग संघर्ष की दुनाली संघियों की और घुमा दी।खासकर केरल,पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में साम्यवादी गुरिल्ले संघ के अनेक स्वयंसेवकों की जान ले चुके है।
9 फरवरी 2016 के JNU विद्रोह ने यह भी साबित कर दिया कि भारत में साम्यवाद आज " आतंकवाद की बौद्धिक संतान" के रूप में जवान हो चुका है। क्योंकि भारत में आतंक के समस्त रूपों यथा- माओवाद पाकिस्तानी आतंकवाद, सभी के साथ साम्यवादी संलयन हो चुका है।
आज भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में जबकि आतंकवाद के साथ ही असली वर्ग-संघर्ष है, साम्यवादी कामरेड राष्ट्रवाद के प्रति वर्ग-संघर्ष कर रहे है। यह स्वाभाविक ही है क्योंकि राष्ट्र और संस्कृति राष्ट्रवाद के अंगभूत घटक है जबकि साम्यवादियों के लिए यह अफीम है।

Wednesday, February 17, 2016

आज़ादी...!

कश्मीर मांगे अज़ादी,
केरल मांगे आज़ादी,
बंगाल मांगे आज़ादी..

आखिर इस आज़ादी के क्या मायने है, जो देशद्रोही उमर खालिद और कश्मीरी अलगाववादियों तथा माओवादियों एवम् नक्सल छात्र संगठन DSU के कार्यकर्ताओं के साथ कम्यूनिस्ट पार्टी नेता एवम् JNU छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को चाहिए..?
    दर असल पूरे राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन दिशाभ्रम का शिकार रहा।दरअसल वह भारत के बजाय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के ज्यादा करीब रहा और यही कारण रहा कि कम्युनिस्ट भारतीयता के कभी भी करीब नहीं आ पाये। भारतीय संस्कृति उन्हें अफीम ही लगती रही।उन्होंने तमाम नशे किये लेकिन अफीम के नशे से वह हमेशा दूरी बनाये रखे। शशस्त्र क्रांति दबे छुपे हमेशा कम्युनिस्टों के अजेंडे में बनी रही।उनका पोलित ब्यूरो हमेशा ही गोपनीयता में विश्वास रखता रहा और यह भी एक बड़ा कारण बना कि कम्युनिस्ट कभी आम जनता के ज्यादा करीब नहीं आ पाये। 1935 के भारत सरकार अधिनियम में भारत में संघ शाशन की कल्पना की गई।भारतीय स्वतंत्रता के नेताओं ने आज़ाद भारत की कल्पना "Union of States" के रूप में की और संविधान में भी भारत का यही स्वरूप स्वीकार किया गया है। लेकिन कम्युनिस्ट ऐसा नहीं चाहते थे। उन्होंने कैबिनेट मिशन 1946 के सकमक्ष भी भारत को " Fedration of Independet States" बनाने का प्रस्ताव दिया था अर्थात कम्युनिस्ट प्रान्तों की आज़ादी के पक्षधर थे और वह संयुक्त राज्यो के संघ के बजाय भारत को स्वतंत्र राज्यों का एक ढीला ढाला संघ बनाना चाहते थे जैसा कि आज का सोवियत फेडरेशन है जैमे शामिल रूस, कज़ाकस्तान आदि स्वतन्त्र देश है।
कम्युनिस्टों ने 1947 में भी यह स्वीकार नहीं किया कि देश को आज़ादी मिल गई है वरन उन्होंने तेलंगाना में आज़ाद भारत सरकार के खिलाफ 1948 में शशस्त्र विद्रोह शुरू कर दिया।