Wednesday, March 18, 2015

किसान को किसान बनाकर क्यों रखना चाहते हैं सब ?

अन्नदाता, देवता, आदि न जाने कितने विशेषण किसानों को आज तक दिए गए है.किसान की तारीफ़ के कसीदे अन्य किसी भी वर्ग से ज्यादा पढ़े गए हैं इस देश में.
     संसद के अन्दर भी किसान को अन्नदाता और भाग्यविधाता न जाने क्या क्या तारीफ़ मिली है.
      मै खुद एक किसान का बेटा हूँ और खेती-किसानी के दुःख दर्द को खूब समझता हूँ. मेरी समझ में आज तक यह
नही आया कि आखिर क्यों किसान को सिर्फ किसान बनाकर रखने की सोची समझी साजिश देश में रची जाती रही है.
    देश के अर्थशास्त्री अच्छी प्रकार जानते है कि देश में सार्वाधिक प्रच्छन्न बेरोजगारी कृषि क्षेत्र में है, कृषि क्षेत्र सदा से ही श्रम-आधिक्य की समस्या से झूझता रहा है जिसे किसी ने भी कभी समस्या के तौर पर प्रस्तुत नही किया. आज देश में प्रतिव्यक्ति भूमि उपलब्धता की जो स्थिति है कृषि क्षेत्र में उसकी तुलना में कहीं अधिक या कहिये कि कल्पनातीत श्रम लगा हुआ है. किसी ने इस श्रम-अधिक्य का प्रबंध करने का आजादी के लगभग 67 वर्षो में कोई प्रयास नहीं किया है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के
नेतृत्व में जरुर कौशल विकास एक मुद्दा बना है..लेकिन देखने वाली बात यह होगी कि क्या कौशल विकास एक आन्दोलन बन पायेगा ताकि कृषि में खपे हुए श्रमाधिक्य का कौशल विकास करके उसको किसानी के दलदल से निकाला जा सके ! किसानी और गरीबी भारत में एक ही समस्या (सिक्के) के दो पहलू है.
 यदि मै कहूँ कि " देश के अधिकांस किसान गरीब है ,लेकिन सभी गरीब किसान नही हैं" तो यह गलत नहीं होगा. जो किसान कथित रूप से अमीर है वह सिर्फ अपनी आसपास की आबादी से ही तुलनात्मक रूप से अधिक समृद्ध है न कि किसी शहरी अमीर के समकक्ष ! उपर से गरीबी रेखा देश के गरीब को मुँह पर करारा तमाचा है.जितने रुपये एक अमीर किसी रेस्तरां में खाना खाकर झूठन में छोड़ता है और बैरा को टिप देता है उतने में देश के निति नियंता उम्मीद करते है कि प्रत्येक भारतीय अमीरी रेखा के ऊपर आ जाये..यह आम भारतीय का मजाक नहीं तो क्या है..काबिले तारीफ़ यह है कि गरीबी रेखा के विषय में सभी राजनितिक दलों में कमाल की एकता है..
         "जब किसानी में गुजारा नही,आराम नही,सम्मान नही,भरपेट भोजन नही, बच्चों की उच्च एवं श्रेष्ठ शिक्षा की व्यवस्था नही तो मुझे या मेरे बच्चों को किसान क्यों होना चाहिए ?" यह सवाल आज प्रत्येक भारतीय किसान को खुद से पूछना चाहिए! किसानी से सिर्फ "भावनात्मक मूर्ख" बनकर चिपके रहना तो और भी बड़ी मूर्खता होगी.
         देश के पास औद्योगिक नीति,वाणिज्य नीति, आधारभूत सुविधा नीति, पर्यावरण नीति आदि सब है.लेकिन किसान नीति के नामपर सिर्फ चार बेवकूफी भरी पंक्तिया है--- कृषि विकास दर का 4% वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य (परन्तु कैसे ? कुछ दिशा नहीं) आदि ।
देश में कृषि उत्पादकता चिंताजनक रूप से काफी कम है.देश की जनसँख्या का लगभग 52% हिस्सा कृषि कार्यों में लगा है जिसका देश के कुल उत्पादन में 15% से भी कम हिस्सा है . फिर सवाल यह कि सालभर हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी मात्र इतने उत्पादन के लिए आखिर 52% लोग अपना शरीर और दिमाग खेती में क्यों खपाए?
आंकड़े देखें तो स्थिति और भी अधिक दयनीय है..
कृषि कार्यों में लगी जनसँख्या (सम्पूर्ण जनसँख्या का  52%) का देश के सकल घरेलू उत्पाद में कुल योगदान 2012-13 में कुल 14.1% रहा है जबकि उद्योग और सेवा क्षेत्र में लगी सेष 48% जनसंख्या का योगदन 85.9% .
जो किसान नहीं उन सब की स्थित आज किसानों से कहीं ज्यादा बेहतर है.

शेष अगले अंक में !
@ सुनील सत्यम



Thursday, March 12, 2015

कौन समझता है किसान का दर्द ?

किसान सिर्फ एक मुद्दा है चुनाव के दौरान कुछ भोले और अनपढ़ लोगों को चिकनी चुपड़ी बाते कहकर उनका वोट हासिल करने का। इस देश मे यह सबसे बड़ा प्रहसन है कि किसान वर्ग से चुनकर संसद और विधान मंडलों मे चुनकर पहुँचने वाले इस वर्ग के लोग भी अपने मुद्दों और दर्द को भूलकर बेगानी तान पर दुंदुभि बजाते है।
1965-66 के दौर से शुरू हुई हरित क्रान्ति ने पंजाब,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश,तटीय महाराष्ट्र,आंध्र एवं तटीय तमिलनाडु के क्षेत्रों की तस्वीर बदलकर रख दी। हालांकि इसका एक पश्च-प्रभाव क्षेत्रीय असमानताओं के रूप मे देखने को मिला।
देश के पूर्व राष्ट्रपति महामहिम ए॰पी॰जे॰ अबुल कलाम जी ने द्वितीय हरित क्रान्ति का आह्वान किया था और साथ ही इसके लिए मूलमंत्र भी दिया था लेकिन आज तक उस पर अमल नहीं हो पाया है।
आज देश का किसान दोहरी समस्या से जूझ रहा है- एक तो प्रथम हरित क्रान्ति के क्षेत्रो मे ठहराव की स्थिति और दूसरे अब तक प्रथम हरित क्रान्ति के लाभों से देश के एक बड़े हिस्से के किसानो का वंचित रहना। दोनों समस्याएँ अलग अलग रणनीतिक हल चाहती हैं। प्रथम हरित क्रान्ति का क्षेत्र " किसानो का कब्रिस्तान" बनता जा रहा है। विदर्भ,पंजाब और अब पश्चिम उत्तर प्रदेश किसानो द्वारा आए दिन आत्महत्या की घटनाओं के साक्षी बनते जा रहे है। दरअसल इस क्षेत्र मे कृषि उत्पादन लागते इतनी ज्यादा बढ़ चुकी है की इसने किसान के लाभ को शून्य या कई मामलो मे ऋणात्मक स्थिति मे पहुंचा दिया है। कृषि आगत लागते कृषि तकनीकी के अध्यतन न हो पाने के कारण बढ़ती जा रही है। कम पढ़ा लिखा होने के कारण किसान नई तकनीकी को अपनाने के लिए तैयार नहीं है, वह कोई जोखिम भी नहीं उठाना चाहता है। कृषि विश्वविध्यालय डिग्री वितरण के केंद्र मात्र बनकर रह गए है। " लैब टु लैंड" कार्यक्रम पूरी तरह विफल रहा है। कृषि विश्वविध्यालयों द्वारा की जाने वाले शौध विश्वविध्यालयों की चहरदीवारी मे ही दम तोड़ रहे है।