Wednesday, May 13, 2015

सम्बन्धों की कसौटी-2

मैंने जवाब दिया " तुम्हें"
यदि अभय सिर्फ मेरे मन मे उसके प्रति क्या ही ? यह जानना चाहता था तो उसका जवाब उस मिल जाना चाहिए था। लेकिन मेरा जवाब सुनने के बाद शायद उसका साहस बढ़ गया था या फिर उसे लगा की मै शायद हवा मे ही पिंकी के चुनाव लड़ने की बात कर रहा था।
"भाई साहब असल मे मेरे समर्थक चाहते है कि मै चुनाव लड़ूँ। उनका कहना है कि मै राजनीति करता हूँ तो चुनाव भी मुझे ही लड़ना चाहिए। लोग कह रहे है कि आप लोग तो सहारनपुर मे रहते हैं,और वैसे भी 2010 वाले चुनाव मे तेजपाल गुर्जर जिला पंचायत चुनाव लड़े थे। उन्हे गाँव से 2900 वोट पड़े थे फिर भी चुनाव नहीं जीत पाये, पिंकी भाभी के साथ तो ऐसी कोई बात नहीं है, तेजपाल गुर्जर ने बिजली घर के लिए जमीन देकर गाँव पर अहसान किया था,उसके बाद ही उसे 2900 वोट मिले और चुनाव हर गए।" अभी अब नेता की भांति मुझे चुनावी समीकरण समझाने लगे थे।
मुझे चुनावी समीकरण मत समझाओ अभय, वो मै तुमसे ज्यादा जानता हूँ। तुम्हारे सवाल का जवाब मैंने दे दिया था लेकिन अब तुम राजनीति कर रहे हो। जितनी तुम्हारी अब तक की राजनीति है उससे ज्यादा मैंने छात्र राजनीति की है। असली समीकरण यह नहीं है जो तुम मुझे समझा रहे हो।" मैंने कहा, अब मै समझ रहा था कि अभय सिर्फ राजनीति कर रहा था।
" मै पिछले तीन वर्षों से इस चुनाव के बारे मे सोच रहा हूँ , तुम्हारे और सभी मित्रों के सामने चर्चा करता रहा हूँ लेकिन तुमने एक बार भी मेरे सामने कभी यह चुनाव लड़ने कि इच्छा तक जाहिर नहीं की, अब अचानक यह चुनाव तुम्हारे लिए इतना महत्वपूर्ण कैसे हो गया है ? कल तक तुम कैराना से विधान सभा का टिकट मांग रहे थे , आज जिला पंचायत ! तुम्हारा कोई राजनीतिक एजेंडा भी है या नहीं? मैंने एक साथ कई बाते कह डाली , अभय अगर मगर की स्थिति मे था।
" एक बड़े भाई की हैसियत सी अगर कहूँ तो तुम्हें यह चुनाव नहीं लड़ना चाहिए,क्योंकि यह चुनाव लड़कर यदि तुम हार गए तो तुम्हारी राजनीति यहीं खत्म हो जाएगी, जिंदगी मे कभी बड़े चुनाव की सोच भी नहीं पाओगे। और यदि तुम जीत भी गए तो बिक जाओगे ,फिर भी तुम राजनीतिक रूप से खत्म हो जाओगे। " यदि एक नेता की दृष्टि से कहूँ तो तुम्हें यह चुनाव लड़ना चाहिए ताकि तुम यहीं खत्म हो जाओ ! ताकि भविष्य मे हमारी तुम्हारी कोई प्रतिद्वंदीता ही न रहे ! लेकिन तुम्हें इस समय मेरा कोई सुझाव ठीक लगेगा नहीं क्योंकि तुमने मन बना लिया है कि तुम्हें हर हाल मे चुनाव लड़ना है।" मैंने कहा
"ठीक है यदि तुम्हें चुनाव लड़ना ही है तो अपनी तैयारी जारी रखो,हम भी जनसंपर्क जारी रखते है , तुम भी रखो, चुनाव मे अभी काफी समय है।" अब मैंने मन मे ठान लिया था कि अभय का राजनीतिक रूप से खत्म हो जाना ही ठीक है।
अभय मेरे साथ इसलिए था कि उसी इस बीच मुझसे अपने स्वार्थ पूरे करने थे। उसके मन मे था कि जिला पंचायत चुनाव मे अभी काफी समय है, इसलिए अभी मौन रहा जाए या अनमने ढंग से हाँ कहा जाए, जब चुनाव के लिए पर्चे दाखिल होंगे तब वह हाथ-पैर जोड़कर हमे चुनाव न लड़ने के लिए मना लेगा। लेकिन अभय कि यह रणनीति समय से पहले ही इसलिए असफल हो गई क्योंकि उसने कभी सपने मे भी यह नहीं सोचा होगा कि पिंकी के चुनाव के लिए एक वर्ष पहले से ही तैयारी शुरू कर दी जाएगी।
          "अभी चुनाव मे काफी समय है आप अपनी तैयारी करे, हम अपनी करते है, जब चुनाव आएगा तब देखा जाएगा, अभी पोस्टर लगवा देता हूँ," यह कहकर मैंने अभय को संकेत दे दिया की वह यदि चुनाव लड़ना चाहता है तो अपनी तैयारी करे, हमारी तरफ से उसे कोई हरी झंडी नहीं है।"
        अगले दिन मै सहारनपुर आ गया, पिताजी ने पोस्टर लगाने का एक रुपया प्रति पोस्टर के हिसाब से ठेका दे दिया। पूरे वार्ड मे पोस्टर लगते ही चर्चा शुरू हो गई कि पिंकी पँवार सत्यम जिला पंचायत का चुनाव लड़ रही है। इस चर्चा ने अभय को असहज कर दिया और उसने लोगों के बीच चर्चाओं मे अपना प्रचार शुरू कर दिया कि मै चुनाव लड़ूँगा कोई पिंकी शिंकी नहीं। पोस्टर लाग्ने के बाद कि चर्चाओं के उपरांत अभय ने खुद ही मुझसे और मेरे परिवार से दूरी बनानी शुरू कर दी। घर आना जाना बंद कर दिया, पिताजी के सामने मैंने यह चर्चा नहीं की कि अभय खुद चुनाव लड़ना चाह रहा है। पिताजी को किसी अन्य श्रौत से इस बारे मे जानकारी मिली तो उन्हे अत्यंत पीड़ा हुई, बिब्बी ने उस दिन खाना नहीं खाया जिस दिन उन्हे पता चला कि अभय खुद चुनाव लड़ना चाहता है दुख उसके चुनवा लड़ने को लेकर नहीं था बल्कि उन्हे सदमा इस बात से लगा कि अभय से पूछने के बाद पोस्टर छपवाए गए फिर भी उसने ऐसा क्यो किया कि वह अब खुद चुनाव लड़ना चाहता है?
अभय के विद्रोह का मूल कारण !
----------------------------------------
 अभय के हमारे खिलाफ विद्रोह का मूल कारण मुझे समझ मे आता है। दर असल इस विद्रोह के पीछे मेरे द्वारा जावेद तोमर से चुनाव के लिए समर्थन मांगने हेतु किया गया फोन था। मैंने दिसंबर 2014 मे जावेद तोमर को फोन किया कि मेरी पत्नी चुनाव लड़ रही है और मैंने जावेद को समर्थन मांगने के लिए फोन किया है। जावेद ने एक साढ़े हुए नेता कि भांति मुझसे बात कि और कहा कि अभी चुनाव मे बहुत समय है अभी से कुछ कहना मुश्किल है।" मैंने कहा कि " लोकतन्त्र मुझे अधिकार देता है कि मै हर नागरिक से समर्थन मांगू, इसी तरह हर नागरिक को अधिकार है कि वह मुझे समर्थन दे या न दे। फिर भी जावेद भाई मैंने आपके सामने अपनी बात कहा दी है यदि कोई भी संभावना होगी तो आप इस पर गौर जरूर करना।"
 जावेद से हुई वार्ता के बारे मे पिताजी ने बिना किसी लग लपेट के, अभय के सामने चर्चा कर दी। बस इसी बात ने अभय को मेरे खिलाफ ला खड़ा कर दिया। उसनेइस विषय मे मेरे सामने अपनी नाराजगी भी प्रकट कर दी थी और मैंने उसके जवाब मे कहा भी था कि किसी व्यक्ति से समर्थन मांगने का अर्थ यह नहीं कि मै किसी अन्य के खिलाफ हो गया हूँ। मैंने उसे यह भी समझाया कि जावेद से न तो मेरी कोई दुश्मनी है और न ही हम एक दूसरे के कभी समर्थक या खिलाफ ही रहे है। चुनाव मे तो सबका सहयोग चाहिए।" मैंने यह भी कहा कि " जावेद से तुम्हारी दुश्मनी है, मेरी तो नहीं ! मेरे लिए यह संभव नहीं है कि मै अपने हर दोस्त के दोस्त को अपना दोस्त और हर दुश्मन को निजी दुश्मन मानूँ ! बल्कि मै तो तटस्थ रिश्तों मे विश्वाश करता हूँ ! मै न तो किसी के पेट मे रहने मे विश्वास करता हूँ और न ही किसी कि आंखो मे खटकने मे "
लेकिन अभय न तो इतने बड़े दिला वाला निकला कि मेरी बात को समझ सके और न ही उसने एक राजनेता के गुणों का ही परिचय दिया, बल्कि उसने छोटी मानसिकता वाले एक वार्ड सभासद जैसा प्रदर्शन किया जिसे एक अच्छी बात का सिर्फ इसलिए विरोध करना है कि उसका श्रेय किसी और को न मिल जाए !
          इस घटना के बाद अभय असुरक्षा की भावना का शिकार हो गया उसे यह लगने लगा कि जिला पंचायत चुनाव उसे खुद लड़ना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि उसकी राजनीति ही चौपट हो जाए ! लेकिन अभय की सोच गलत थी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह था कि मैंने अभय को शामली भाजयुमों का जिलाध्यक्ष बनवाया था।
अभय को शामली भाजपा मे स्थापित करने कि रणनीति शामली जिला बनने के तुरंत बाद ही बनानी मैंने शुरू कर दी थी। इसकी शुरुवात मैंने रुपेन्द्र सैनी से बात करके कि थी। रुपेन्द्र सैनी सिसौली के रहने वाले है और संघ नेता श्री जयपाल सिंह जी के पुत्र है, मेरे जूनियर और पक्के मित्र है, मैंने उनसे बात करके भाजयुमों मुजफ्फरनगर के जिला उपाध्यक्ष पद पर अभय का मनोनयन करवाया था, ताकि शामली मे उसे जिला अध्यक्ष पद के प्रबल दावेदार के रूप मे स्थापित किया जा सके ।इस रणनीति को आगे बढ़ते हुए मैंने बाबू हुकुम सिंह जी से अपने छोटे भाई के रूप मे अभय का मुजफ्फरनगर मे परिचय करवाया था। 
 

Wednesday, March 18, 2015

किसान को किसान बनाकर क्यों रखना चाहते हैं सब ?

अन्नदाता, देवता, आदि न जाने कितने विशेषण किसानों को आज तक दिए गए है.किसान की तारीफ़ के कसीदे अन्य किसी भी वर्ग से ज्यादा पढ़े गए हैं इस देश में.
     संसद के अन्दर भी किसान को अन्नदाता और भाग्यविधाता न जाने क्या क्या तारीफ़ मिली है.
      मै खुद एक किसान का बेटा हूँ और खेती-किसानी के दुःख दर्द को खूब समझता हूँ. मेरी समझ में आज तक यह
नही आया कि आखिर क्यों किसान को सिर्फ किसान बनाकर रखने की सोची समझी साजिश देश में रची जाती रही है.
    देश के अर्थशास्त्री अच्छी प्रकार जानते है कि देश में सार्वाधिक प्रच्छन्न बेरोजगारी कृषि क्षेत्र में है, कृषि क्षेत्र सदा से ही श्रम-आधिक्य की समस्या से झूझता रहा है जिसे किसी ने भी कभी समस्या के तौर पर प्रस्तुत नही किया. आज देश में प्रतिव्यक्ति भूमि उपलब्धता की जो स्थिति है कृषि क्षेत्र में उसकी तुलना में कहीं अधिक या कहिये कि कल्पनातीत श्रम लगा हुआ है. किसी ने इस श्रम-अधिक्य का प्रबंध करने का आजादी के लगभग 67 वर्षो में कोई प्रयास नहीं किया है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के
नेतृत्व में जरुर कौशल विकास एक मुद्दा बना है..लेकिन देखने वाली बात यह होगी कि क्या कौशल विकास एक आन्दोलन बन पायेगा ताकि कृषि में खपे हुए श्रमाधिक्य का कौशल विकास करके उसको किसानी के दलदल से निकाला जा सके ! किसानी और गरीबी भारत में एक ही समस्या (सिक्के) के दो पहलू है.
 यदि मै कहूँ कि " देश के अधिकांस किसान गरीब है ,लेकिन सभी गरीब किसान नही हैं" तो यह गलत नहीं होगा. जो किसान कथित रूप से अमीर है वह सिर्फ अपनी आसपास की आबादी से ही तुलनात्मक रूप से अधिक समृद्ध है न कि किसी शहरी अमीर के समकक्ष ! उपर से गरीबी रेखा देश के गरीब को मुँह पर करारा तमाचा है.जितने रुपये एक अमीर किसी रेस्तरां में खाना खाकर झूठन में छोड़ता है और बैरा को टिप देता है उतने में देश के निति नियंता उम्मीद करते है कि प्रत्येक भारतीय अमीरी रेखा के ऊपर आ जाये..यह आम भारतीय का मजाक नहीं तो क्या है..काबिले तारीफ़ यह है कि गरीबी रेखा के विषय में सभी राजनितिक दलों में कमाल की एकता है..
         "जब किसानी में गुजारा नही,आराम नही,सम्मान नही,भरपेट भोजन नही, बच्चों की उच्च एवं श्रेष्ठ शिक्षा की व्यवस्था नही तो मुझे या मेरे बच्चों को किसान क्यों होना चाहिए ?" यह सवाल आज प्रत्येक भारतीय किसान को खुद से पूछना चाहिए! किसानी से सिर्फ "भावनात्मक मूर्ख" बनकर चिपके रहना तो और भी बड़ी मूर्खता होगी.
         देश के पास औद्योगिक नीति,वाणिज्य नीति, आधारभूत सुविधा नीति, पर्यावरण नीति आदि सब है.लेकिन किसान नीति के नामपर सिर्फ चार बेवकूफी भरी पंक्तिया है--- कृषि विकास दर का 4% वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य (परन्तु कैसे ? कुछ दिशा नहीं) आदि ।
देश में कृषि उत्पादकता चिंताजनक रूप से काफी कम है.देश की जनसँख्या का लगभग 52% हिस्सा कृषि कार्यों में लगा है जिसका देश के कुल उत्पादन में 15% से भी कम हिस्सा है . फिर सवाल यह कि सालभर हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी मात्र इतने उत्पादन के लिए आखिर 52% लोग अपना शरीर और दिमाग खेती में क्यों खपाए?
आंकड़े देखें तो स्थिति और भी अधिक दयनीय है..
कृषि कार्यों में लगी जनसँख्या (सम्पूर्ण जनसँख्या का  52%) का देश के सकल घरेलू उत्पाद में कुल योगदान 2012-13 में कुल 14.1% रहा है जबकि उद्योग और सेवा क्षेत्र में लगी सेष 48% जनसंख्या का योगदन 85.9% .
जो किसान नहीं उन सब की स्थित आज किसानों से कहीं ज्यादा बेहतर है.

शेष अगले अंक में !
@ सुनील सत्यम



Thursday, March 12, 2015

कौन समझता है किसान का दर्द ?

किसान सिर्फ एक मुद्दा है चुनाव के दौरान कुछ भोले और अनपढ़ लोगों को चिकनी चुपड़ी बाते कहकर उनका वोट हासिल करने का। इस देश मे यह सबसे बड़ा प्रहसन है कि किसान वर्ग से चुनकर संसद और विधान मंडलों मे चुनकर पहुँचने वाले इस वर्ग के लोग भी अपने मुद्दों और दर्द को भूलकर बेगानी तान पर दुंदुभि बजाते है।
1965-66 के दौर से शुरू हुई हरित क्रान्ति ने पंजाब,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश,तटीय महाराष्ट्र,आंध्र एवं तटीय तमिलनाडु के क्षेत्रों की तस्वीर बदलकर रख दी। हालांकि इसका एक पश्च-प्रभाव क्षेत्रीय असमानताओं के रूप मे देखने को मिला।
देश के पूर्व राष्ट्रपति महामहिम ए॰पी॰जे॰ अबुल कलाम जी ने द्वितीय हरित क्रान्ति का आह्वान किया था और साथ ही इसके लिए मूलमंत्र भी दिया था लेकिन आज तक उस पर अमल नहीं हो पाया है।
आज देश का किसान दोहरी समस्या से जूझ रहा है- एक तो प्रथम हरित क्रान्ति के क्षेत्रो मे ठहराव की स्थिति और दूसरे अब तक प्रथम हरित क्रान्ति के लाभों से देश के एक बड़े हिस्से के किसानो का वंचित रहना। दोनों समस्याएँ अलग अलग रणनीतिक हल चाहती हैं। प्रथम हरित क्रान्ति का क्षेत्र " किसानो का कब्रिस्तान" बनता जा रहा है। विदर्भ,पंजाब और अब पश्चिम उत्तर प्रदेश किसानो द्वारा आए दिन आत्महत्या की घटनाओं के साक्षी बनते जा रहे है। दरअसल इस क्षेत्र मे कृषि उत्पादन लागते इतनी ज्यादा बढ़ चुकी है की इसने किसान के लाभ को शून्य या कई मामलो मे ऋणात्मक स्थिति मे पहुंचा दिया है। कृषि आगत लागते कृषि तकनीकी के अध्यतन न हो पाने के कारण बढ़ती जा रही है। कम पढ़ा लिखा होने के कारण किसान नई तकनीकी को अपनाने के लिए तैयार नहीं है, वह कोई जोखिम भी नहीं उठाना चाहता है। कृषि विश्वविध्यालय डिग्री वितरण के केंद्र मात्र बनकर रह गए है। " लैब टु लैंड" कार्यक्रम पूरी तरह विफल रहा है। कृषि विश्वविध्यालयों द्वारा की जाने वाले शौध विश्वविध्यालयों की चहरदीवारी मे ही दम तोड़ रहे है।