Monday, August 6, 2012

किसानों के लिए मासिक वेतन निर्धारित होना चाहिए.!!

खेत खलिहान और किसान की दशा सुधारने में सरकारी खेती, आमूलचूल परिवर्तन ला सकती है. इससे देश में उत्पादन की गुणवत्ता एवं गुणात्मकता भी बढ़ेगी. किसी फसल का अधिक्य होने पर उसके विनाश से भी बचा जा सकेगा.हर वर्ष देश में खरबों रुपये का खाद्यान्न भण्डारण के आभाव में नष्ट हो जाता है..
इस खेती में सरकार देश के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों के अनुसार फसल मानचित्र तैयार कराये और देश की आवश्यकता के हिसाब से किसी फसल के उत्पादन के लिए कुल भौगोलिक क्षेत्रफल निर्धारित कर दे.  सरकार देश के किसानो को सब्सिडी के बजाय मुफ्त में बीज-खाद-पानी दे. किसी फसल की क्षेत्र विशेष में प्रचलित उत्पादन दर को मानक मान कर उत्पादन के लिए लक्ष्य निर्धारित किया जाए. उससे अधिक उत्पादन होने पर किसानो के लिए बोनस की भी व्यवस्था होनी चाहिए ताकि किसानों को अधिक उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया जा सके.
किसान को उसकी भूमि का बाजार की प्रचलित कीमतों पर वार्षिक या मासिक आधार पर किराया दिया जाये. और किसानों के लिए मासिक वेतन निर्धारित होना चाहिए. क्योंकि इस व्यवस्था में किसान को सरकारी कर्मचारी के रूप में रखा जायेगा.
सरकारी खेती में किसान अपने लिए या बाजार के लिए उत्पादन न करके सरकार के लिए उत्पादन करेगा. फसल कटाई के बाद किसानों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार रियायती दरों पर फसल देकर शेष फसल सरकार अपनी आवश्यकताओं के लिए प्राप्त कर ले.
यदि हम इस व्यवस्था को अपना ले तो आत्महत्या के लिए मजबूर किसानों को तो रहत मिलेगी ही साथ में मंदी जैसी आपात स्थितियों से बचा जा सकेगा. किसान एवं ग्रामीण गरीब की दशा भी सुधरेगी..इसके माध्यम से हम भूख के अभिशाप और कुपोषण जैसी स्थितियों से भी बच सकेंगे. यह एक नयी अर्थव्यवस्था की और एक सार्थक कदम भी होगा..
एक प्रकार से यह ग्रामार्थाशास्त्र की शुरुआत होगी. सरकारी खेती का क्रियान्वयन ग्राम पंचायतों के माध्यम से होना चाहिए.  पंचायतों को प्रति वर्ष फसल विशेष के लिए सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य मिले. वेतन, बोनस एवं भूमि का मासिक/वार्षिक किराया भी पंचायतों के द्वारा ही सीधे किसानों को प्रदान किया जाना चाहिए.
                                               
                                                                                                                  कुंवर सुनील सत्यम.


Friday, August 3, 2012

मै बलिदान से नहीं डरता , सरकार मुझे अस्पताल ले जाकर मार देना चाहती है

हम अभी कुछ भूले नहीं हैं. रामदेव वाले आन्दोलन की यादे अभी ताजी है..जब जन आन्दोलन के सामने सरकार लगभग घुटने टेकने वाली थी..या कहे अगर बाबा का आन्दोलन उनके छुपे राजनितिक अजेंडे के लिए नहीं होता..या कहे की वह वन मेन आर्मी शो न होता..या कहे की बाबा अपने प्रवक्ता खुद ही न होते...बहुत सी ऐसी बाते....न कहे तो...

      कुल मिलाकर यदि उस रात कायरो की तरह महिलाओं के वस्त्र पहनकर बाबा रामदेव ने पीठ न दिखाई होती,,वो भागे नहीं होते तो तस्वीर कुछ और होती. उस समय पूरा देश दुखी था..एक आन्दोलन का बुरा अंत हुवा था..देश के चिंतको ने कहा था बाबा आखिर बाबा निकले , वहा आन्दोलन कारी नहीं है और बलिदान की उनकी सामर्थ्य नहीं है..वो डरपोक और कायर निकले..

    टीम अन्ना ने बाबा से सबक लिया और इसने देश के सामने ऐसा ज़ाहिर किया की " हम आज़ादी की दूसरी लड़ाई लड़ रहे है,.." आन्दोलन का अंतिम चरण आते आते अरविन्द केज़ारिवाल इतने अधीर हो गए की अन्ना की जगह लेने के लिए उन्होंने अघोषित रूप से पूरा जोर लगा दिया..खुद को आन्दोलन का बड़ा नेता प्रस्तुत करने में वह सफल भी सिद्ध हुवे.

  अरविन्द I R S है, दूरदृष्टि भी है, वे जानते थे की लोग बाबा की कायरता को भूले नहीं है. इसलिए उन्होंने जुलाई-अगस्त २०१२ के इस आन्दोलन में मंच से जनता की भावनाओं का खूब दोहन किया..और इस काम को अंजाम दिया सरकारी चिकित्सकों की इस राय ने कि अनशन के कारण अरविन्द की हालत बिगड़ रही है अतः उनको हॉस्पिटल में भारती करने कि जरुरत है.." इस बात का अरविन्द ने पूरा फायदा उठाने की कोशिश की और उन्होंने खुद को बलिदानी के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की..उन्होंने मंच से जनता को बताया." आज तक जितने भी अनशनकारियों की मौत हुवी है वह अस्पताल जाकर ही हुवी है. और मै बलिदान से नहीं डरता , सरकार मुझे अस्पताल ले जाकर मार देना चाहती है, बलिदान और हत्या में फर्क होता है." इसप्रकार अरविन्द ने बिना किसी बलिदान के जनता को यह सन्देश दे दिया की वह बलिदान के लिए तैयार है..लेकिन सरकार उनकी हत्या करवाने की फ़िराक में है..

   मुझे या मेरे जैसो को ऐतराज़ अरविन्द केज़रिवाल या टीम अन्ना द्वारा राजनितिक पार्टी के गठन को लेकर नहीं है...ऐतराज़ है तो इस बात पर की अपनी राजनितिक महावाकान्क्षाओं की पूर्ति के लिए उन्होंने जनता की भावनाओं का व्यापार किया. अरविन्द और किरण बेदी जैसे पूर्व प्रशाशकों ने यह बिना किसी पूर्व निर्धारित रणनीति के किया हो..इसमें मुझे पूरा संदेह है. इतिहास इस बात का भी गवाह है की जब जब जन आन्दोलनों का नेतृत्व उच्च वर्ग के हाथ में रहा है तब तब उन्होंने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए, आवश्यकता पड़ने पर आंदोलनों को गिरवी रख दिया था. अब रामदेव के पास फिर से हीरो बनने का मौका है...मैदान खाली है और खिलाडी केवल एक--बाबा रामदेव..देखते रहिये..